सफलता ही नहीं, असफलता भी कुछ सबक देती है, जानिए कैसे करना है इसका सामना
अमेरिका की बेस्टसेलर लेखिका एम. जे. रयान ‘द पावर ऑफ पेशेंस’ में लिखती हैं, ‘मन के प्रतिकूल परिणाम आने या किसी की दिल दुखाने वाली बातों पर इन दिनों या तो व्यक्ति आपा खो बैठता है या फिर नकारात्मक प्रतिक्रियाएं देने लगता है। यदि बचपन से ही असफलता स्वीकार करने की आदत डाली जाए, तो व्यक्ति के मन में ये नकारात्मक भाव कभी नहीं आ पाएंगे।’ इसलिए यह जरूरी है कि आप न केवल स्वयं असफलता को स्वीकार करने की आदत सीखें, बल्कि अपने बच्चों को भी सिखाएं। यहां हम कुछ टिप्स दे रहे हैं, जो आपको असफलता (How to accept failure) का सामना करना सिखाएंगे।
एंग्जाइटी (Anxiety) का कारण आपकी यही आदत है
स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्च कहती है कि एंग्जायटी का एक प्रमुख कारण धैर्य और सहनशीलता का अभाव है। नुक्लियर फैमिली में रहने के कारण ज्यादातर लाेगों में इन दोनों गुणों की कमी रह जाती है। लोगों की दुःख सहने की आदत भी नहीं रह गयी है।
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की रिसर्च रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही कहती है। सफलता पाने के दबाव की शुरुआत घर से होती है, जो स्कूल-कॉलेज तक की पढ़ाई के बाद नौकरी करने के दौरान अपने चरम पर होता है। यदि बचपन से ही असफलता को स्वीकार करने की आदत विकसित की जाये तो मानसिक बीमारियां भी कम होंगी और आत्महत्या की घटनाएं भी नहीं के बराबर होंगी।
मोबाइल(Mobile) और सोशल साइट्स (Social sites) ने बिगाड़ा काम
नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो…। यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो…।
आज से कुछ साल पहले तक हर मां स्कूली पढ़ाई शुरू होने के कुछ दिन बाद से ही बच्चों के सामने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह कविता गुनगुनाने लगती थी। यह कविता बच्चों में न सिर्फ धैर्य का संचार करती थी, बल्कि सफलता और असफलता, दोनों को समान नजरिए से देखने के लिए प्रेरित भी करती थी।
पर हाल के कुछ वर्षों में मोबाइल और सोशल साइट्स के दबदबे ने मानो मां के मुंह से ये गीत छीन लिए हैं। अब समयाभाव के कारण न तो मां यह गीत गुनगुनाती है और न बच्चे सुनना चाहते हैं। व्यक्ति में धैर्य और सहनशीलता जैसे गुण तो कपूर की तरह फुर्र हो गए हैं।
घट गई है दुख सहने (Sorrow) की ताकत
माउंट एवरेस्ट को अपने कदमों से नापने वाली भारत की पहली महिला पर्वतारोही बछेंद्री पाल ने एक बार अपने अनुभवों को शेयर किया था, ‘मैं उत्तराखंड के एक छोटे से गांव की थी, इसलिए संघर्ष तो मेरी दिनचर्या में शामिल था।
आजकल मां-पिता सफलता पाने के लिए बच्चों पर दबाव तो बनाते हैं, लेकिन उन्हें संघर्ष करने ही नहीं देते हैं। अपने बच्चों को वे चांदी के चम्मच के साथ पालते हैं, जबकि संघर्ष ही उन्हें बुरे दिनों में भी खड़े होने और सहन करने की ताकत देता है। खेल-खेल में बच्चों को हारना सिखाना चाहिए। तभी वे दोबारा कोशिश करना सीखेंगे तथा अपनी कमजोरी और मजबूती जान पाएंगे।
तिहाड़ के पुरुष जेल में पहली महिला सुपरिटेंडेंट अंजु मंगला ने बताया था, यदि छोटी उम्र में ही मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा दी जाए, तो लोग जरूर सहन करना सीखेंगे। 18 साल बाद बच्चे की सोच परिपक्व हो जाती है। इसलिए उन्हें समझाना थोड़ा कठिन हो जाता है।
पैरेंटिंग का योगदान (Role of Parenting) अहम
क्लिनिकल साइकोलिजस्ट आभा सिंह बताती हैं कि आजकल हर माता-पिता बच्चे को स्टार किड के रूप में देखना चाहते हैं। इसलिए 4 साल के बच्चे से 6 साल के बच्चे जैसी अपेक्षा की जाती है। यह दबाव बच्चा झेल नहीं पाता है। तभी उनमें चिंता, तनाव, आक्रामकता के मामले अधिक मिल रहे हैं।
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कस्टमाइज़ करेंबच्चों के सही विकास में मां-पिता दोनों का रोल महत्वपूर्ण है। बच्चा जो देखता है, उसका अनुसरण वह अधिक करता है और वैसा व्यवहार करता है। बच्चों के करियर संबंधी निर्णय लेने में हमें हमेशा बच्चों की रुचि का ख्याल रखना चाहिए।
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