जून को प्राइड मंथ के तौर पर मनाया गया, जब एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय (lgbtqia+) के लोग अपनी अस्मिता का जश्न मनाते हैं। पर इतना ही काफी नहीं है। किसी एक दिन या किसी एक माह से अलग इन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। खासतौर से इस पूरे समुदाय में मौजूद T यानी ट्रांसजेंडर (Transgender) समुदाय के लोगों को। प्यार, सम्मान, बराबरी और अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे इसी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं ज़ोया लोबो (Zoya Thomas Lobo), जो अब भारत की पहली ट्रांसजेंडर फोटो जर्नलिस्ट बन चुकी हैं। कैसा रहा उनका अब तक का सफर, आइए इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में जानते हैं।
ज़ोया पिछले दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “हमारा हर दिन संघर्ष से भरा होता है। हमें न हमारे परिवार से अपनापन मिलता है न सोसायटी से सम्मान। अब तक भी मुझे समान अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिसकी वजह से मेरे समुदाय के लोग अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते। मुझे भी पांचवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। यहां तक पहुंचना मेरे लिए भी आसान नहीं था।”
किन्नर समुदाय के लोग सिग्नल पर दिखाई देते हैं, भीख मांग रहे होते हैं या बधाइयों में होते हैं। यहीं क्यों नजर आते हैं आखिर। हमें भी कॉरपोरेट ऑफिस में होना चाहिए। पर इसके लिए जरूरी है एजुकेशन, तभी हम अच्छे ऑक्यूपेशन तक अपनी पहुंच बना पाएंगे।
लोग सोचते हैं, ये किन्नर आया है चलो इसे थोड़े पैसे दे दो। पर जरूरत पैसों की नहीं, बराबरी के अधिकार की है। मैं जब ट्रेन में मांगने जाती थी, कुछ लोग अच्छा व्यवहार करते थे, कुछ लोग बहुत बुरा व्यवहार करते थे। एक वक्त ऐसा भी था जब लोकल ट्रेन में पुलिस ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया, मेरा यौन शोषण भी किया गया। ज़ोया लोबो आज जहां पहुंची है, वह कोई आसान राह नहीं थी।
मुश्किलें बहुत सारी थीं, पर मुझे फोटो खींचने का शौक था। मैंने पैसे सेव किए और अपने लिए एक कैमरा खरीदा। यहीं से धीरे-धीरे मेरी जिंदगी में बदलाव आना शुरू हो गया। संडे को जब लोकल ट्रेन में मांगने नहीं जाना होता था, तब मैं कहीं न कहीं वाइल्ड लाइफ, सिटी या किसी भी पसंदीदा जगह जाकर फोटो खींचा करती थी। कभी स्ट्रीट शूट कर लिया।
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मैंने एक शॉर्ट फिल्म की थी, ‘हिजड़ा श्राप कि वरदान’। इसके कुछ क्लिप्स बहुत अच्छे बन गए थे। इस दौरान एक संपादक थे श्रीनेत सिंह, जिनसे मेरी मुलाकात हुई। जिन्होंने मेरे लिए कॅरियर के दरवाजे खोल दिए। उनके ऑफिस में मेरा एक इंटरव्यू हुआ था। उस इंटरव्यू के बाद जब मैं वापस आने लगी तो उन्होंने मुझे अपॉइंटमेंट लैटर दिया कि आज से तुम भारत की पहली ट्रांसजेंडर फोटो जर्नलिस्ट हो।
परिवार तो बहुत पहले ही छूट गया था, समुदाय के साथ रहने में मुझे बंधन महसूस होता है। मैं आज़ाद रहना चाहती हूं। मैं जिस प्रोफेशन में हूं मुझे लगता है कि मुझे अकेले ही रहना चाहिए। एक पिता ने मुझे जन्म दिया, दुनिया में लाए। पर डॉ भीम राव अंबेडकर मेरे असली पिता हैं, जिन्होंने मुझे अपने हक के लिए लड़ना सिखाया, जिन्होंने हमें संविधान दिया। उनकी भूमिका हम सभी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है। मैं अपने समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरुक करना चाहती हूं। पत्रकारिता से बेहतर माध्यम इसके लिए दूसरा कोई नहीं हो सकता।
मेरी आवाज़ उन लोगों के लिए समर्थन बने, जिन्हें अब तक मौके नहीं मिल पाए हैं। इसके लिए युवाओं का सपोर्ट बहुत जरूरी है। मैंने अगर 11 साल ट्रेन में ताली बजाई है, तो आज मैं कैमरा संभाल रहीं हूं। मुझे भी मेरे शुरुआती दिनों में कुछ लोगों ने सपोर्ट किया, तभी मैं आगे बढ़ पाई। इसी मदद की जरूरत बाकी लोगों को भी है।
जब भी मैं तनाव में होती हूं, तो मोटिवेशनल वीडियो सुनती हूं। ये वीडियो मुझे बूस्ट करते हैं, मैं फिर से पॉजीटिव महसूस करने लगती हूं। एक और तरीका है, जिसे मैं अकसर आजमाती हूं। जब भी आपको तनाव महसूस हो, तो अगर आपके पास कोई नदी, झील, समुद्र या पार्क है, वहां जाइए और वहां ब्रीदिंग एक्सरसाइज करते हुए अपने बारे में पॉजिटिव संकल्प दोहराइए। ब्रीद इनहेल करते हुए पॉजिटिव थॉट्स अंदर लें और एक्जेल करते हुए उन सभी नकारात्मक विचारों को बाहर निकाल दें। तनाव से उबरने का मेरा यही तरीका है।
कोविड के दौरान जो लोग दवाओं पर थे, उन्हें बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। हमारे समुदाय के कुछ लोग एचआईवी से पीड़ित हैं। वे साधारण बीमारियों के उपचार के लिए भी जाएं, तब भी उन्हें इग्नोरेंस का सामना करना पड़ता है। इसके लिए डाॅक्टर तो जिम्मेदार हैं ही, पर मैं अपने समाज के लोगों को भी इसे बर्दाश्त न करने की सलाह दूंगी।
मैं कहती हूं, “हम अगर ताली बजाकर सामने वाले से ऑर्ग्यूमेंट करना जानते हैं, तो डॉक्टर से हम तर्क क्यों नहीं कर सकते। हम एक ह्यूमन बॉडी हैं और हर डॉक्टर की यह जिम्मेदारी है कि वह जरूरतमंद का उपचार करे।
इसके अलावा जो मेडिकल स्टूडेंट होते हैं, उन्हें भी अनिवार्य रूप से अंतिम वर्ष में सोशल वर्क के तौर पर समाज के उपेक्षित वर्ग के लोगों के लिए मेडिकल सर्विस में योगदान करना चाहिए। इससे भी ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लोगों को मदद मिल सकती है। सिर्फ मेडिकल ही नहीं, अन्य विषयों की पढ़ाई करने वाले युवाओं को भी, समाज के लिए अपनी शिक्षा और कौशल का योगदान देना चाहिए।
एलजीबीटीक्यू कम्युनिटी के लोग शराब, ड्रग्स आदि का नशा करने लगते हैं। असल में अगर फैमिली स्वीकार करेगी, तभी किसी व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार मिल पाएगा। पर हमें न परिवार से प्यार मिलता है, न सोसायटी से सम्मान। यही वजह है कि हमारे समुदाय के बहुत सारे लोग नशा करते हैं।
इसकी वजह उस प्यार की कमी है, जो उन्हें परिवार से मिलना चाहिए था। समाज भी उन्हें तरह-तरह से ताने देती है। वह सबसे बचकर वह नशे की तरफ आकर्षित होता है, जहां उसे रिलैक्स महसूस होता है। हम उनकी एडिक्शन को तो देखते हैं, पर इसके कारण को खत्म करने की काेशिश नहीं करते।
जागरुकता की कमी के कारण ही यौन संक्रमणों का भी सामना करना पड़ता है। लोगों में अब भी झिझक है अपनी इंटीमेट हाइजीन पर बात करनें में, जबकि पोर्नोग्राफी पर लोग आराम से बात कर लेते हैं।
मैं मुंबई से पुणे स्पेशली प्राइड परेड के लिए ट्रेवल करती हूं। बहुत शानदार अनुभव होता है वह, सब अलग-अलग तरह से अलग-अलग रंगों में सजे हाेते हैं। प्राइड परेड का अर्थ है कि हम भी इस दुनिया का हिस्सा हैं। पर इसकी मांग बार-बार क्याें करनी पड़ रही है। समाज उनकी उपस्थिति को स्थायी तौर पर क्यों नहीं स्वीकार करता।
इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगी कि एलजीबीटीक्यूु में जो टी है यानी ट्रांसजेंडर, उसे अभी तक उसके अधिकार नहीं मिल पाए हैं। आप लेस्बियन हों या गे हों, तो कोई आपको रेस्तरां, स्कूल या कॉलेज जाने से नहीं रोकता। पर ट्रांसजेंडर को इन सभी स्टिग्मा का भी सामना करना पड़ता है। मैं मैक्डोनाल्ड से बर्गर लेने गई और मुझे वहां इग्नोरेंस का सामना करना पड़ा।
अगर आपने साड़ी पहनी है, बिंदी लगाई है, तो गेटकीपर को ऐसा ही लगता हे कि हम पैसा मांगने आए हैं। वे हमें अपने क्लाइंट की तरह नहीं देखते। मुझे म्यूजिक का शौक है। यहां मुंबई में एक बहुत बड़ी दुकान है म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट बेचने की। मैंने उससे वायलिन मांगा तो उसने ऐसा व्यवहार किया, कि जैसे मैं हूं ही नहीं!
हमें क्यों बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि हम भी एक्जिस्ट करते हैं। अगर रेस्तरां या किसी भी दुकान पर स्त्री और पुरुष जा सकते हैं, तो हम क्याें नहीं। यह संवेदनशीलता की कमी की वजह से है। सोसायटी को भी संवेदनशील बनाए जाने की जरुरत है।
प्राइड मंथ पूरे महीने मनाया जाता है जबिक ट्रांसजेंडर विजिबिलिटी डे सिर्फ एक दिन के लिए मनाया जाता है। इसे पूरे महीने क्यों नही मनाया जाता? जब हमारी विजिबिलिटी बढ़ेगी, तो लोगों की हमारे प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ेगी।
हमें आपके सपोर्ट की जरूरत है। आप हमारे लिए वह बैक बोन बनिए, ताकि हमें समाज की उपेक्षाओं से लड़ने की ताकत मिले। सोसायटी में पेट्स और प्लांट्स को भी एडोप्ट किया जाता है। पर क्या कभी किसी ने ट्रांसजेंडर को अडॉप्ट करने का सोचा? हमें आपका पैसा या स्पॉन्सरशिप नहीं चाहिए। हमें एक गार्डियन, सपोर्टर, एनकरेज करने वाले की जरूरत है। हमें ऐसे दोस्त, ऐसे पेरेंट्स की जरूरत है, जिनसे हम खुलकर दिल की हर बात कर सकें।
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