शिक्षा के बारे में अकसर यह कहा जाता है कि यह शेरनी का वह दूध है, जो जितना चखेगा उतना दहाड़ेगा। यानी सही शिक्षा आपको जाति, धर्म, वर्ग आदि के तमाम बंधनों को तोड़कर आपको आगे बढ़ने और अपने सपने पूरा करने के लिए तैयार करती है। इस पूरे सफर में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं शिक्षक। 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जो भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन का जन्मदिन (Dr Sarvepalli Radhakrishnan birthday) है। आज शिक्षक दिवस (Teacher’s Day) पर मिलते हैं एक ऐसी लड़की से जो मुंबई की एक बस्ती में पली-बढ़ी और आज केलिफाेर्निया यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर है।
यह बांग्ला में प्रचलित मान्यता है। जो बंगाली लोगों के शिक्षा के प्रति समर्पण और जागरुकता को दर्शाती है। सरिता अंबेडकरवादी हैं और इसी कहावत को चरितार्थ करती दिखती हैं। वे कहती हैं, ” मेरी प्राथमिक शिक्षा मुंबई की मराठी शाला में हुई। हम झुग्गी में रहते थे और शिक्षा का प्राथमिक स्रोत वही था। मगर किताबों के प्रति जो मेरा रुझान है उसका श्रेय मेरे माता-पिता और मेरे परिवार को दिया जाना चाहिए। वे कहते थे कि कपड़े, साज-सज्जा बाद में है, पहले पढ़ाई। मेरी मां भी आठवींं पास थीं, तो अपने स्तर पर उन्हें भी पढ़ाई की अहमियत पता थी। वे भी चाहती थीं कि उनकी बेटियां कम से कम बीए तो जरूर करें।”
“काम के बाद अकसर मेरे पिता उन लोगों से बात किया करते थे जिनकी दुकान पर वे फूल-माला पहुंचाया करते थे। उन्हें देखकर उनके दिल में यही ख्याल आता था कि शिक्षा ही वह सीढ़ी है, जिस पर चढ़कर उनके बच्चे आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए सब कुछ छोड़कर वे केवल पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया करते थे।”
डाॅ सरिता रामसुरत माली मूलत: जौनपुर की रहने वाली हैं। मगर बहुत पहले ही उनके पिता मजदूरी करने मुंबई आ गए थे। जहां उन्होंने 30-35 बरस ट्रक पर क्लीनर का काम किया। बाद में वे फूल मालाएं बनाने और बेचने का काम करने लगे। जिसमें उनका परिवार भी उनकी मदद करता था।
इसी परिवार में जन्मी सरिता माली। सरिता अपने परिवार और प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बताते हुए कहती हैं, “म्यूनिसिपल स्कूल में जो मराठी शाला होती है वहां से मेरी शिक्षा की शुरुआत हुई। मुंबई में उसे मराठी शाला कहा जाता है। यहां दसवीं तक मैंने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की। अच्छे नंबरों से दसवीं पार करने के बाद मेरा दाखिला मुंबई के प्रतिष्ठित कॉलेज के जे सोमैया कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स (k J Somaiya college of arts and commerce) में हुआ।
“यह मेरी जिंदगी का पहला टर्निंग पॉइंट था। वहां की बोली, भाषा, खानपान, संस्कृति, रहन-सहन को बहुत नजदीक से देखने-समझने का मौका मिला। यह कहूं कि मराठी के बाद अब गुजराती संस्कृति के बारे में मैंने और जाना।”
“कभी-कभी ऐसा लगता था कि मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं हैं, मैं उन लोगों से अलग दिखती हूं। मगर यहीं पर मुझे ऐसे शिक्षक मिले, जिन्होंने मुझे इन चीजों से बाहर निकलना और बाधाओं को दरकिनार करना सिखाया। मैं हमेशा से अपने शिक्षकों की बहुत प्रिय रही हूं। मेरे शिक्षक भी मुझे बहुत प्रिय रहे हैं। आज मैं जहां हूं, जिस मुकाम पर हूं, माता-पिता के बाद उसका सारा श्रेय मेरे शिक्षकों को जाता है।”
जेएनयू एक बिल्कुल अलग दुनिया है। यहां आप सिर्फ डिग्री ही नहीं लेते, बल्कि जीवन के बारे में एक धारणा बनाते हैं। उन चीजों को पहचानना सीखते हैं, जो किसी व्यक्ति के प्रति भेदभाव का कारण बनती आ रही हैं।
2014 में बीए कंप्लीट करने के बाद मैंने जेएनयू की प्रवेश परीक्षा दी। ओबीसी की आखिरी सीट पर यहां मेरा चयन हुआ। 2016 में मैंने जेएनयू का पीएचडी का एंट्रेंस क्लियर किया और ऑल इंडिया रैंक हासिल की। नॉन हिंदी बेल्ट की मैं पहली ऐसी लड़की थी जिसने यह उपलब्धि हासिल की थी। प्रो. देवेंद्र चौबे सर के साथ मैंने एमफिल किया। उसके बाद मैंने पीएचडी की और पीएचडी के दौरान ही अमेरिका में अप्लाई किया। जहां यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया सेंट बाबरा में मेरा चयन हो गया।
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कस्टमाइज़ करेंयहां और दूसरी तरह के अनुभव हो रहे हैं। पर यहां भी मुझे ऐसे शिक्षक मिले, जिन्होंने पढ़ने और आगे बढ़ने में मेरा भरपूर सहयोग किया।
डॉ सरिता कहती हैं, शिक्षा के सफर में मेरे शिक्षकों ने मुझे तमाम तरह के भेदभाव का विरोध करना और उससे आगे बढ़ना सिखाया। यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफाेर्निया में मुझे रिसर्च के साथ-साथ पढ़ाने का भी अवसर मिला। मेरे लिए पढ़ाना भी उतना ही खास है, जितना पढ़ना रहा है। मैं कोशिश करती हूं कि मैं समता, उन्नति और प्रगति के उन्हीं मूल्यों को अग्रेषित करूं, जो मैंने अपने शिक्षकों से ग्रहण किए हैं।
डॉ अनीता ठक्कर मैम, डॉ सतीश पांडे सर, जेएनयू और यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया और सबसे ज्यादा डॉ अंबेडकर का शुक्रियादा करती हूं। जिनकी वजह से मैं आज यहां हूं। शिक्षक ही वास्तव में आपका मार्गदर्शक होता है। अगर आपको रास्ता ही ठीक से नहीं दिखाया जाएगा, तो उम्र भर चलने के बाद भी आप मंजिल तक नहीं पहुंच पाएंगे।
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