किसी की सफलता का आकलन उसकी उपलब्धि से नहीं, बल्कि उस प्रारंभ बिंदु से करना चाहिए, जहां और जिन हालात में उसने सफर की शुरूआत की थी। जिंदगी मक्खन की डली नहीं है, यहां रुकावटें ही रास्ते का मील पत्थर बनती जाती हैं। इन मील पत्थरों से भी क्या सबक लेने हैं, यह नीरा (Neera Jalchhatri) बखूबी जानती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय (University of Delhi) के दौलत राम कॉलेज में प्राध्यापक, लेखिका और फिल्म निर्देशक नीरा जलक्षत्रि (Neera Jalchhatri) का अब तक जीवन और एलोपेसिया से उनका संघर्ष किसी के लिए भी प्रेरणा स्रोत हो सकता है। हेल्थशॉट्स (Healthshots) ने उनसे एक लंबी और आत्मीय बातचीत की। आइए जानते हैं उनके बारे में –
हेयर फॉल (Hair fall), हेयर लॉस (Hair loss) , रंग (Colour), कद-काठी (Figure), आर्थिक संकट (Economical problems) , सोशल टैबू (Social Taboo) में से कोई भी अगर आप में हीन भावना पैदा कर रहा है, तो आपको नीरा जलक्षत्रि (Neera Jalchhatri) से बस एक बार मिल लेना चाहिए। नीरा की धीर-गंभीर मुस्कान में हौंसलों के मंत्र हैं। वे जब बोलती हैं, तो उलझनों के जाले छंटते जाते हैं और जिंदगी को देखने का नजरिया बदल जाता है।
लखनऊ के एक निम्न मजदूर परिवार में जन्मी नीरा जलक्षत्रि (Neera Jalchhatri) की परवरिश उनके दादा-दादी ने की। जहां संसाधन भले ही न हों, पर जिंदगी को सलीके से जीने का प्रशिक्षण खूब मिला। अपने परिवार और परवरिश के बारे में बताते हुए नीरा कहती हैं, “दुनिया के सबसे खास लोगों ने मेरी परवरिश की है। पांच साल की उम्र से 22 वर्ष तक मैं अपने दादा-दादी के साथ रही।
दादी लोगों के घरों में बर्तन धोने का काम करतीं थीं और दादा जी चाय की दुकान करते थे। शिक्षित होने वाली अपने परिवार की मैं पहली व्यक्ति हूं। दादा जी ने मुझे फैसले लेने का शऊर और आज़ादी दी।
मैं अपने दादा जी से बहुत प्रभावित रही हूं। वे अशिक्षित थे, पर मेरे लिए किसी काउंसलर और लाइफ कोच से कम नहीं थे। मैं जब भी पढ़ाई के बारे में या विषय चुनने के बारे में उनसे कुछ पूछती, तो वे मुझ पर भरोसा जताते। उन्होंने मुझमें यह आत्मविश्वास भर दिया था कि मैं जो करूंगी सबसे बेहतर करूंगी। यही वजह है कि अपनी जिंदगी का हर फैसला मैंने बहुत सोच समझकर लिया। चाहें वह छठी कक्षा में विषयों का चुनाव हो अपने लिए जीवनसाथी चुनना। अपने हर फैसले पर मुझे गर्व है।
किशोरावस्था में जब लड़के-लड़कियां अपने लुक को लेकर बहुत संजीदा होने लगते हैं, उस समय एलोपेसिया नीरा के जीवन में आया। एलोपेसिया एरिटा (alopecia areata) एक ऐसा ऑटोइम्यून डिसऑर्डर (Autoimmune disorder) है, जहां शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता शरीर के खिलाफ ही काम करने लगती है। इसका ज्यादा असर सिर के बालों पर होता है और जगह-जगह से बाल झड़ने के कारण छोटे-छोटे पैच बनने लगते हैं।
यहां देखें – एलोपेसिया को एक अलग नजरिए से डील करने वाली शख्सियत नीरा जलक्षत्रि का पूरा साक्षात्कार
नीरा बताती हैं, “मैं आठ-दस साल की रही होऊंगी जब मेरे सिर पर छोटे-छोटे पैच दिखने शुरू हो गए थे। मैं हमेशा अपनी पढ़ाई में बिज़ी रहती थी, तो मैंने उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया। पर मेरी दादी इसे लेकर काफी परेशान हो गईं थीं। उन्होंने तमाम तरह के तेल और जड़ी-बूटियां मेरे सिर पर ट्राई करनी शुरू कर दी थीं। उन्हें लगता था कि लड़की है, तो इसे तो हर तरह से अच्छा दिखना चाहिए। हमारे समाज में बालों के प्रति एक खास तरह का ऑबसेशन है। लंबे समय तक मेरी खोपड़ी दादी के नुस्खों की लैब बनी रही।”
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कस्टमाइज़ करेंमैं अपनी दुनिया में मस्त थी, मैं और मेरी किताबें। हर साल क्लास में फर्स्ट आने वाली लड़की। दोस्तों की कभी कोई कमी नहीं रही। पर मैंने अपने आसपास कभी भीड़ इकट्ठा होने नहीं दी। बहुत चुनकर मैं अपने दोस्त चुनती हूं। इसी के साथ-साथ एलोपेसिया भी लगातार बढ़ रहा था। पहले वह छुपा हुआ था, फिर एक साइड बढ़ने लगा। हालांकि एक तरफ के बाल पलट कर उसे ढका जा सकता था, पर सच्चाई यह थी कि वह बढ़ रहा था।
दादी तब तक हर नुस्खा ट्राई कर चुकी थीं और 14-15 साल की उम्र तक आते, मैंने बिल्कुल मना कर दिया कि अब कोई और एक्सपेरीमेंट मेरे सिर पर नहीं होगा। न उतने संसाधन थे और न ही मेरा रुझान कि मैं अपने सिर के गायब होते बालों को सीरियसली ले पाती। इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि मेरी शादी की तरफ से दादी का ध्यान हट गया।
हमारे समाज में शादी के लड़की के बहुत सारे प्रतिमान हैं। और एलोपेसिया उनके आड़े आ रहा था। मुझे ऐसा लगता है कि अगर यह बीमारी मुझे न हुई होती तो शायद मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी गई होती। और इसके लिए मैं एलोपेसिया का शुक्रियादा करती हूं, कि उसने मुझे पढ़ने का, अपने आप पर काम करने का भरपूर वक्त दिया।
जब डॉक्टर को दिखाया तो उनसे पता चला कि मुझे स्कारिंग एलोपेसिया है। जिसका उपचार संभव नहीं है और यह बढ़ता ही जाता है। इसके बाद खोपड़ी के ऊपर क्या चल रहा है, अब इस पर मैंने ध्यान देना बंद कर दिया था और समय के साथ मेरे परिवार वालों ने भी इसे स्वीकार कर लिया। मैं हमेशा मस्तिष्क के भीतर की ग्रोथ पर फोकस करती रही।
मेरे दादा जी ने मुझे बहुत प्यार से पाला है। जब मेरे साथ कोई परेशानी नहीं थी, तब भी उन्होंने मुझे आत्मविश्वास के साथ रहना सिखाया। वे कहते थे, कि आप क्या काम करते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाए इसके कि आप कैसे दिखते हैं।
बहुत सारी चीजें आपके ज्ञान और व्यवहार से तय होती हैं। और किसी भी आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करना है, मुझे बचपन से ही इस पर फोकस करना सिखाया गया। हालांकि मेरी दादी मेरी शादी को लेकर बहुत चिंतित रहती थीं। पर दादा जी ने यही सिखाया कि तुम अपने लिए क्या करना चाहती हो, कैसे करना चाहती हो, यह तुम ही तय करो।
मैं जिस समाज और पृष्ठभूमि से आती हूं, वहां मैंने शादीशुदा औरतों की बहुत दुर्दशा देखी थी। तो शादी को लेकर कोई खास आकर्षण मेरे मन में कभी नहीं रहा। लुक मेरे लिए हमेशा बहुत छोटी चीज रही, क्योंकि अपनी एजुकेशन और प्रतिभा के कारण हमेशा लाइमलाइट में रही। प्रपोजल आते भी थे तो मेरा ध्यान उस तरफ कभी गया ही नहीं, क्योंकि मेरी मंजिल आत्मनिर्भर होना थी।
मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरा सबसे अच्छा दोस्त मेरा जीवनसाथी है। मैंने जैसा पहले आपको बताया कि मैं अपने आसपास लोगों की भीड़ इकट्ठी करना पसंद नहीं करती हूं। बहुत सीमित लोग ही मेरे दोस्त बन पाते हैं। संदीप मेरे बहुत अच्छे दोस्त रहे हैं। उन्होंने जब मुझे शादी के लिए प्रपोज किया तब भी मैं काफी समय तक इससे बचती रही। हां, मन में कहीं एलोपेसिया थी था। पर संदीप का इस तरफ बहुत सहयोगपूर्ण और सकारात्मक रवैया था।
और अंतत: हम दोनों ने रजिस्टर्ड मैरिज की। क्योंकि लोक दिखावा, जो भारतीय समाज में बहुत प्रचलित है, उसमें हम दोनों की ही कोई रुचि नहीं थी।
कुछ समस्याएं आपके जीवन में आपको तराशने के लिए भी आती हैं। चुनौतियों से मुकाबला करते हुए आप और ज्यादा संवेदशनशील और ज्यादा समझदार होते जाते हैं। एलोपेसिया ने मुझे और बेहतर इंसान बनाया। उसने मुझे मेरे लिए वक्त दिया। यही वजह है कि मैं अपना मनचाहा पढ़ पाई।
स्कूल के बाद हायर एजुकेशन, फिर नौकरी और अब दिल्ली विश्वविद्याल के दौलत राम कॉलेज में पढ़ा रही हूं। क्रिएटिव चीजें करना पसंद करती हूं। अभी हाल ही में ‘द लास्ट लेटर’ नाम से एक शॉर्ट फिल्म बनाई। जिसे काफी सराहा गया।
ये अजीब बात है कि लोग किसी के लुक को लेकर या तो इतने प्रभावित रहते हैं कि उसके जैसा बनना चाहते हैं, या फिर उसे इतना कमतर करार देते हैं कि उस पर चुटकुला बना देते हैं। यही संवेदनहीनता है, हमारा समाज बहुत बंटा हुआ समाज है और हमें इसमें सुधार के प्रति जागरुक होना होगा।
हाशिये के समाज के प्रति, रंग को लेकर हमारे समाज में एक तरह का ऑबसेशन भी है और भेदभाव भी। हमारे समाज में रंग को लेकर मुहावरे बने हुए हैं। जबकि यह आपका चुनाव है ही नहीं। किसी खास भौगोलिक क्षेत्र में पैदाइश के साथ आपका रंग बदल सकता है। तो इसके लिए गर्व और शर्म कैसे हो सकती है। इन चीजों से बाहर आना होगा। सौंदर्य के इन मानदंडों से बाहर आना होगा, क्योंकि ये प्राकृतिक नहीं हैं।
कुछ विजयी लोगों ने अपने पर आश्रित लोगों के लिए ये तय कर दिए हैं। इनका सामाजिक विश्लेषण, इनकी उत्पत्ति के मूल में जाना होगा और खुलकर बात करनी होगी। हमारे यहां 90 फीसदी गालियां स्त्री के खिलाफ हैं। यही वजह है कि लड़कियों के लिए बनना-संवरना और सौंदर्य के मानदंड तय कर दिए गए हैं। जबकि पुरुष के लिए ऐसा कोई मानदंड नहीं है।
सिंदूर, बिंदी, मंगलसूत्र के लिए लड़कियों को बचपन से तैयार कर दिया जाता है, पर सेक्सुअल हेल्थ पर बात नहीं की जाती। ये भी एक तरह की कंडीशनिंग है कि आप कुछ मुद्दे अपने हाथ में दबा कर रखना चाहते हैं।
जब हम समानता की बात करते हैं, तो हमें इन सब पूर्वाग्रहों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा। आप कैसी दिखती हैं, यह आपका लक्ष्य नहीं है, आप क्या करना चाहती हैं, यह आपके जीवन का ध्येय होना चाहिए।
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