मैं फिटनेस जर्नी में तक़रीबन सात सालों से हूं। कभी साइज़ ज़ीरो नहीं करना चाहा पर इतना चाहा कि बॉडी वाइज़ (शारीरिक रूप से) और (मानसिक तौर पर) मेंटली फिट रहूं। मेरा मानना है कि, स्त्रियों को चूंकि परिवार की धुरी माना जाता है, तो कम-से-कम उन्हें अपना पूरा खयाल रखना चाहिए। उन्हें अपने स्वास्थ्य का, अपनी ओवरऑल ग्रूमिंग का ख़ास ख़याल रखना चाहिए। कहना सिर्फ इतना है कि, “स्त्रियों को खुद से प्यार करना चाहिए। खुद को खुश रखने के सारे उपाय करने चाहिए।”
बचपन में बड़े-बुज़ुर्गों से सुना था कि “तन-मन सही रखोगे तो दुनिया की कोई ऐसी चीज़ नहीं जो तुम्हारी ना हो जाए।” लेकिन तब बचपना था, इतनी ज्ञान की बातें कौन समझना चाहता था। खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई में कब दिन बीत जाते, पता ही नहीं चलता। हालांकि मैं बचपन से ही एक्टिव किस्म की इंसान रही हूं। बैठना मेरे लिए सिर्फ पढ़ाई करते या सोते वक्त ही होता था। खानपान भी देसी और सादा ही रहता था, तो कभी मोटापा संबंधित कोई शारीरिक शिकायत नहीं हुई।
हां! ये बात अलग है कि जब भी तनाव ने मेरे जीवन में पांव पसारा, उसका सीधा प्रभाव मेरी सेहत पर ज़रूर पड़ा। कॉलेज टाइम में, कॉम्पीटीशन देते वक़्त जब भी मुझे तनाव ने घेरा, तो मैंने अपने तनाव को कभी दोस्तों से बातें करके, कभी मां का काम में हाथ बंटा के, तो कभी पापा से बहस करके दूर कर लेती थी। उस वक़्त बनारस रहा करती थी, तो स्ट्रेस होने पर घाट की तरफ रुख करना, मेरा प्रकृति की ओर एक अनकहा समर्पण था। वहां बैठकर घंटों गंगा को अपनी रवानगी में बहते हुए देखा करती। एक सुकून जब मन पर काबिज हो जाता, घर लौट आती।
फिर उम्र के अगले पड़ाव पर पहुंची। शादी हुई, गंगा का किनारा छूटा, पीहर में बड़का बच्चा होने की हुकूमत छूटी। ससुराल की दुनिया में कदम रखा, तो ना चाहते हुए भी दिल ने थोड़ी सिकुड़न महसूस की। वहां शाम को छत के अलावा और कोई ठिकाना नहीं था। फिर ज़िन्दगी ने थोड़ी और रफ़्तार पकड़ी और मैं अपने पार्टनर के साथ एक थर्मल प्रोजेक्ट की कॉलोनी में आ गई।
कॉलोनी का माहौल ज़्यादा दखलंदाज़ी भरा नहीं था, तो सब अपने हिसाब से जीवन जीते थे। वहां सुबह को टहलना नार्मल था। पर छोटे बच्चों के साथ रोज़ वॉक पर निकल पाना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा था। धीरे-धीरे वज़न का कांटा नॉर्मल से ओबीज़ पर पहुंच गया। एक रोज़ सुबह उठी तो पांव ज़मीन पर रखते ही एक चीस-भरी कराह निकली। मेरी दाईं एड़ी में बहुत दर्द था।
टहलना क्या चलते भी नहीं बन रहा था। शाम में डॉक्टर को दिखाया। उन्होंने मेरे वाइटल्स चेक किए, मेरा डेली रूटीन पूछा और बिना कोई दवाई लिखे, सिर्फ इतना कहा कि, “रेणु! तुम्हें अपने रूटीन को बदलने की ज़रूरत है। चाहे कुछ भी हो जाए पर तुम रोज़ पांच किलोमीटर टहलो।” मैं उनकी यह बात सुनकर हैरान रह गई। रोज़ पांच किलोमीटर! नामुमकिन !!
लेकिन अब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो एक बात समझ आती है कि दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं। हममें सिर्फ कुछ भी कर पाने की ज़िद और जज़्बा होना चाहिए। जैसे ताजमहल एक दिन में नहीं बना वैसे ही सुगठित शरीर एक दिन में नहीं बनता। हमें उसपर रोज़ काम करना होता है।
कभी-कभी अकेले कोई काम करते करते जब हम थक जाते हैं, तो आगे बढ़ने के लिए किसी का सहारा ले लेते हैं। ठीक वैसे ही जब अकेले टहलते हुए या वर्कआउट करते हुए मन उकताने लगे, अपने साथी का हाथ पकड़कर खींच लो। मेरे केस में तो मेरे पार्टनर अरविंद ने हमेशा ही मुझे आगे बढ़ाए रखा। उनको पता था कि, घर की स्त्री ठीक रहेगी तो सब स्वस्थ रहेंगे।
आज से सात साल पहले, मैं मां के पास उनकी देखभाल के लिए गई थी। अपना भरा-पूरा-सा रूटीन छोड़कर वहां रहने में मुझे कुछ ही दिनों में अकेलापन-सा महसूस होने लगा। मैं अपनी पॉज़िटिविटी खोने लगी हूं। मैंने अपने पार्टनर से यह सब डिसकस किया। उन्होंने उस पल तो कुछ नहीं कहा, बस थोड़ा समझाकर रहने दिया।
मगर अगले दिन उन्होंने मुझे वहां के किसी नज़दीकी ‘जिम’ को जॉइन करने की बात कही। मैं उनकी बात सुनकर थोड़ी हैरान हुई, क्योंकि मैंने अपने आस-पड़ोस में, घर-समाज में स्त्रियों को या तो सिर्फ घर-आंगन की ख़ूबसूरती बनते हुए देखा था या फिर बहुत अधिक छूट मिलने पर, सूट-सलवार या नाइटी पर दुपट्टा लेकर टहलते देखा था।
ये बात अलग है कि हमारी सोच उन सोचों से थोड़ी अलग थी पर जिम ज्वाइन करना और वो भी अकेले, फिर अजीब और नामुमकिन-सा लगा। लेकिन मैंने कहा न, “दुनिया में कुछ भी नामुमकिन जैसा नहीं है।” मैंने अगले ही दिन पास के दो-चार जिम में पता किया और जो well equipped लगा और दाम में वाजिब लगा, ज्वाइन कर लिया। और यहीं से शुरू हुई मेरी फ़िटनेस जर्नी।
वेट लॉस की शुरुआत में पहले दिन तो ख़ुशी ख़ुशी गई, दूसरे दिन थोड़ी आह निकली और तीसरे दिन कराह, चौथे दिन मैंने सोचा, “आज तो मैं नहीं जा पाऊंगी। ओह! कितना दर्द है शरीर में!” (ये एक किस्म का बहाना ही होता है जो हम अपने दिल को समझाने के लिए देते हैं) कि तभी मेरे व्हाट्सएप पर मेरे पार्टनर का मैसेज चमका। ऊपर से देखा तो कोई फोटो लग रही थी। मैंने सोचा कि होगी कोई मोटिवेशनल फोटो।
फिर भी दिल रखने के लिए जब फोटो पर क्लिक किया तो देखा मेरे पार्टनर के घड़ी की फोटो थी जिसमें उन्होंने एक घंटे में दस हज़ार स्टेप की वॉक कर रखी थी।
अभी मैं कुछ रिएक्ट करती उसके पहले दूसरा मैसेज आ गया, “गुड मॉर्निंग पाली, मैंने अपना आज का टास्क कर लिया, तू कहां तक पहुंची?” मुझमें अचानक से एक कॉम्पीटीशन की भावना उपजी और मैंने रिप्लाई में लिखा, “बस! मैं जिम के लिए निकल ही रही थी।” उधर से जवाब आया, “गुड, गुड! चल फिर देखते हैं अगले तीन महीनों में कौन ज़्यादा फिट होता है।” मैंने भी स्कूटी की चाभी उठायी और सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए रिप्लाई किया, “चल ठीक है, डन!”
हफ्ते के पांच से छह दिन तक जिम और शाम को मसल्स को आराम देने के लिए खाने के बीस मिनट बाद हल्की फुल्की वॉक, और थोड़ा बहुत खान-पान की तब्दीली ने जैसे कमाल कर दिया। हम दोनों ने अपने शरीर से दस किलो वजन कम कर लिया था। हमारी फिटनेस के साथ-साथ स्टैमिना भी मज़बूत हो गई थी। दिमागी तौर पर भी पॉज़िटिव हो गए थे।
रेगुलर वर्कआउट करने से यह फायदा रहा कि इक्कीस दिन में जो कोई भी आदत बनती है, उसे हमारी मसल्स (मासपेशियां) तीन महीने में याद कर लेती हैं। फिर आप चाहे वर्कआउट बीच में ड्राॅप कर दो या किसी कारण वश ना कर सको तो भी वे कुछ भी भूलती नहीं। जैसे ही हम दोबारा से वर्कआउट शुरू करते हैं, उनकी मेमोरी में सारा वर्कआउट रिफ्रेश हो जाता है और फिर हमें दोबारा उतनी दिक्कत नहीं होती।
घर वापस लौटने के बाद वहां मुझे थोड़ी परेशानी हुई क्योंकि वहां जो भी जिम थे वहां स्त्रियों के लिए पहले तो कोई प्लान नहीं था और जिस किसी में था भी तो वहां इक्विपमेंट्स नहीं मौजूद थे। मैंने फिर शाम में अपने पार्टनर के साथ वॉक पर जाना शुरू किया और सुबह में ऑनलाइन ही एक योगा क्लास ज्वाइन कर लिया। योग करने से मैंने पाया कि मेरा शरीर ज्यादा लचीला हो चला था और जब कभी किसी बात का स्ट्रेस होता तो दस मिनट के लिए मेडिटेट कर लेती तो सब ठीक लगने लगता।
उसी साल हमारा ट्रांसफर अलीगढ़ हो गया। हम अलीगढ़ आये तो देखा शहर छोटा था, शहर की तंग गलियों में वॉक करने के लिए जगह नहीं थी। सुबह में ही बाइक, स्कूल बस, टिर्री का रेलमपेल देख मूड ऑफ हो जाता। दो महीने तो यही समझने में निकल गए कि करें तो करें क्या? फिर अंततः हम दोनों ने जिम ज्वाइन कर लिया और दोनों ने वर्कआउट करना शुरू कर दिया।
योग हो, वर्कआउट हो या सिंपल वॉक ही क्यों ना हो, मैंने महसूस किया कि शुरुआत में शरीर जहां तक गवाही दे, उतना ही वर्कआउट करना चाहिए, किन्तु जब आप थोड़े प्रो हो जाते हैं तो बियॉन्ड द लिमिट जाके भी एक्सरसाइज ट्राई करना चाहिए। आप विश्वास नहीं करेंगे, जहां मैं दस सेकंड का प्लैंक नहीं कर पाती थी, वहां मैंने अस्सी-से-नब्बे किलो तक का डेडलिफ्ट किया और पांच मिनट से ऊपर का प्लैंक किया है। मैंने हमेशा अपने लिमिट्स को पुश किया और देखा कि एक इंसान कितना ज़्यादा स्टैमिना हो सकता है।
मुझे याद आ रहा है जब कोविड-19 का भयावह समय आया था तब उस समय मेरा ये रूटीन थोड़ा अस्थिर हुआ था। कुछ व्यक्तिगत मसलों के चलते मैं उस वक़्त बहुत ज़्यादा ही मेंटली डिस्टर्ब हो गई थी। कोविड के समय जितनी बॉउंडरीज़ में इंसान को रहना पड़ा था, वह मुझ जैसे एक्सट्रोवर्ट इंसान के लिए बहुत मुश्किल घड़ी थी।
पहले महीने तो हिम्मत करके मैंने होम वर्कआउट किया मगर अगले के दो महीने बेहद मुश्किल भरे रहे। मुझपर नेगेटिव सोच और नींद ना आने की बीमारी हावी होने लगी जिससे मेरे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कुछ भी करने का मन ही नहीं होता। हर तरह से आती हुई बुरी-बुरी ख़बरों ने रातों की नींद उड़ा दी थी।
मैं चूंकि इमोशनल ज़्यादा हूं तो उस कारण भी मुझ पर कोई भी खबर बुरा असर करने लगी थी। न खाने का जी करता, ना सोने का, ना किसी से बात करने का। मैंने अपना फ़ोन भी उन दिनों बंद कर दिया था। मन की बेचैनी ऐसी थी कि, “ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?” जाने कहां से एक ज़िद घर कर गई थी कि अब कुछ करना ही नहीं है। जब सब ऐसे ही जाना है तो सब कुछ करके भी क्या होगा? ऐसा करते हुए चार महीने से ऊपर हो गए।
एक दिन मेरे पार्टनर ने मुझसे पूछा, क्या हुआ है तुझे? मैंने कहा, मालूम नहीं! और फिर फफक के बहुत रोई। मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैंने ऐसा क्यों किया था। उन्होंने मेरे सर को सहलाया और अगले दिन से मुझे सुबह-शाम जब मौका लगता, उठाकर वॉक पर ले जाने लगे। कुछ दिन में मुझे ठीक लगने लगा।
एक दिन मैंने खुद से कोई होम-वर्कआउट का ऑनलाइन वीडियो खोजा और उसको करना शुरू किया। मैंने अंदर से महसूस किया, “जब मरेंगे तब मरेंगे, अभी जी रहे हैं तो जो करते बने कर लेते हैं। खुद को थोड़ा और सँवार लेती हूँ, खुद से थोड़ा और प्यार कर लेती हूँ।” ऐसी सोच का आधा श्रेय अपने पार्टनर को भी देना चाहूँगी।
आज भी जब कभी दिमाग खराब होता, चीज़ें मेरे अनुसार नहीं हो रही होती हैं तो समझाने के लिए अरविंद और मेरे एक दो दोस्त हमेशा साथ खड़े रहते हैं। आखिर में सिर्फ इतना ही कि हम स्त्रियों को खुद को खुश रखने की बेहद ज़रुरत है। इसके साथ ही अपनी सेहत का ख़ास ख्याल रखने के भी। फिटनेस का मतलब यह नहीं है कि खाना ही ना खाओ या वजन कम करके साइज़ ज़ीरो कर लो।
फिटनेस का मतलब है अपने एसेंस(तत्व) में रहते हुए अपने शरीर को उसके योग्य बनाना। अपनी हिम्मत, अपने साहस की हद को समय-समय पर नापना। इस जीवन के सफर को पूरा करने के लिए हमें शरीर रुपी माध्यम दिया गया है। तो जिससे पूरी दुनिया देखनी है, जिससे इस जीवन का आनंद उठाना है अगर हम उसे ही संवार कर नहीं रखेंगे तो क्या ख़ाक जियेंगे।
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