मालिनी अवस्थी (Malini Awasthi) जब अपने स्वर, लय, देह, ताल और सज्जा के साथ मंच पर उतरती हैं, तो ऐसा लगता है कि गांव की कच्ची पगडंडी पर आषाढ़ की बारिश उतर आई हो। आंख मूंद कर किसी स्वर में घुलते जाना हो या बूझती आंखों से दर्शकों संग बतियाना, मालिनी अवस्थी हर अदा में बेजोड़ हैं। पर सिर्फ इतना सा ही नहीं है उनका परिचय। मंच पर जो दिखती हैं, वे विशुद्ध लोक गायिका मालिनी अवस्थी (Folk singer Malini Awasthi) हैं। जबकि समाज के प्रति उनकी चिंताएं, देश-दुनिया की घटनाओं के प्रति उनकी जागरुकता और स्त्रियों में घुलमिल जाने का उनका सलीका बताता है कि पद्मश्री मालिनी अवस्थी (Padmashree Malini Awasthi) का परिचय इससे कही ज्यादा होना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Women’s Day 2022 ) का इस वर्ष का संकल्प है ब्रेक द बायस (Break the bias)। यानी भेदभाव की सभी बेड़ियां तोड़ डालिए। तो इस बार हमने में भी तमाम पूर्वाग्रहों और बेड़ियों को तोड़ते हुए पद्मश्री मालिनी अवस्थी से कुछ ऐसे सवाल पूछे, जिन पर अभी तक किसी ने बात नहीं की थी। सेहत (Health) , फिटनेस (Fitness) , डाइट (Diet), राजनीति (Politics) से लेकर सोशल टैबू (Social taboo) तक मालिनी जी ने भी इन सवालों के खुलकर जवाब दिए।
सबसे पहले तो धन्यवाद, मुझे हेल्थशॉट्स (Healthshots) के इस कार्यक्रम से जोड़ने के लिए। मुझे लगता है कि जब भी कोई चीज नैसर्गिक होती है, आपके भीतर होती है, तो उसके लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता। वह स्वत: हो जाती है। समाज के साथ, विशेषकर महिलाओं के साथ मेरा एक स्वभावत: जुड़ाव है। मैं बचपन से ऐसी ही हूं। उसका कारण शायद हमारा परिवेश रहा है।
हमारे पिताजी सरकारी डॉक्टर थे, तो हमने उन्हें बचपन से हर समय रोगियों के लिए उपलब्ध देखा है। पूरा बचपन और जवानी भी, अस्पताल के कैंपस में हमारे घर रहे हैं। जहां पर अगर आप कोई खुशी की खबर सुनाने में भी जा रहे हैं, तो वहां रोते-बिलखते मरीजों को भी देख रहे हैं। पिता को उनकी मदद करते हुए देख रहे हैं। सोशल कनैक्ट की वो ट्रेनिंग हमें वहीं से मिलने लगी थी।
मां को दादी, ताई जी वगैरह से संवाद करते देखती थी। बड़े होकर जब मैंने अपने जीवन की राह चुनी, उसमें भी मैंने दूसरों की वेदना को समझकर, उसे संगीत के जरिए निस्पंदन करने का प्रयास किया। यही मेरा नैसर्गिक गुण है। अब भी जब मुझे कोई मंच की नायिका कहता है, तो मुझे लगता है कि वह मेरे मूल व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं है। मंच तो हमारी एक मजबूरी है, क्योंकि आज एक वही प्लेटफॉर्म है जिसके जरिए हम गा सकते हैं। जिसने भी मुझे कार्यक्रमों में देखा होगा कि मैं सभागार में मौजूद लोगों के साथ एक तादात्म्य स्थापित कर लेती हूं।
चुनाव आयोग के साथ के अपने अनुभव के बारे में बात करूं, तो इसने व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत समृद्ध किया। यहां एक अलग तरह का संवाद स्थापित करने की चुनौती थी। क्योंकि जनता मुखर होती है, तो कुछ अनर्गल न बोल जाएं कि लेने के देने पड़ जाएं। कार्यक्रम सुनने जो जनता एक अलग फ्रेम ऑफ माइंड में आती है, वही चुनाव के समय एक अलग तरह के गर्व से भरी होती है। वो जागरुक मतदाता है हमारे देश का। उसमें भी उत्तर प्रदेश एक पूरा देश है। फिरोज़ाबाद से लेकर बागपत तक अलग-अलग जगहों की भाषा शैली बिल्कुल अलग है।
ऐसे में आपका अध्ययन और प्रजेंस ऑफ माइंड काम आता है। ताकि आप लोगों से कनैक्ट कर सकें। इसके लिए हमने लोक गीतों को चुनाव के हिसाब से ट्विस्ट किया। जैसे – “रैलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…” को हमने “पांच बरस में बोट पड़त हैं… “ के रूप में प्रस्तुत किया।
इस दौरान हमने जाना कि उत्तर प्रदेश में आर्थिक मजबूरियों के चलते बहुत सारे लोग अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल ही नहीं कर पाते। यहां जब 42 प्रतिशत से बढ़कर 65 प्रतिशत मतदान हुआ, तो हम लोग बहुत खुश हुए। लोकसभा और विधानसभा चुनाव अब भी वहां एक चुनौती है।
और अगर खट्टे अनुभव की बात करें, तो खट्टा क्या ये बिल्कुल कसैला अनुभव है। मैंने लगातार तीन बार के चुनाव में चुनाव आयोग के साथ काम किया था। पहले हमने स्वीप (Systematic Voters’ Education and Electoral Participation) के लिए काम किया। जिसमें सिर्फ लोगों को मतदाता के तौर पर पंजीकृत करना था। बहुत जुनून के साथ मैंने ये काम किया। राज्य की 80 विधानसभाओं में मैं खुद गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 65 फीसदी बढ़ा जबकि ओवरऑल वोटिंग में 12 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इसके बाद सरकार बदल गई।
इससे झुंझलाए कुछ लोगों ने मेरे खिलाफ आरटीआई डाल दी कि इन्हें कितना पैसा दिया गया। उस समय मुझे बड़ा धक्का लगा कि संसार की सोच कैसी है। ऐसे अनुभवों ने मुझे और मजबूत किया।
यहां देखें –
आप मानें या न मानें, पर यह बात ताे तय है कि अब सत्ता की चाबी महिलाओं के हाथ है। औरतें अब बहुत जागरुक वोटर हो गईं हैं। अब सारे राजनीतिक दलों की की यह विवशता बन गई है कि वे महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपने घोषणा पत्र में शामिल करें। चुनाव विश्लेषक और पत्रकार अब पुरुषों से ज्यादा स्त्रियों से इन मुद्दों पर बात करते हैं कि उन्हें कैसी सरकार चाहिए।
इसी जागरुकता से उनकी राजनीतिक सहभागिता भी तय होती है। अमेरिका को स्थापित हुए इतने वर्ष बीत जाने के बाद अब कुछ ही समय पहले एक अश्वेत महिला वहां के चीफ जस्टिस के पद पर पहुंच पाई है। जबकि उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला मुख्यमंत्री रह चुकी है। यह वाकई क्रांतिकारी समय था।
भारत के महानगरों में जो आपको कामकाजी लड़कियों की भीड़ दिखती है, वह इन्हीं छोटे शहरों और कस्बों से निकली लड़कियां हैं। ऑफिसों में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की कार्यक्षमता को पसंद करते हुए उन्हें ज्यादा जिम्मेदारी दी जा रही है। ये वो लड़कियां हैं, जिनकी मांओं ने उन्हें उड़ने के लिए ये पंख दिए।
काम करने, शिक्षा, उड़ने की, अपनी क्षमताओं को पहचानने की जो आज़ादी इस समय लड़कियां महसूस कर रहीं हैं, वह इससे पहले तक नहीं थी।
अब हर एक के हाथ में फोन है। ऑनलाइन होना अब आपके लिए विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता है। इसने लड़कियों के लिए एक नई दुनिया के दरवाजे खोल दिए हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति और ज्यादा जागरुक हुई हैं। इस दौरान जो टैबू टूटे हैं, वह अद्वितीय है। कपड़े हों, काम की आज़ादी हो या सपने हों, कस्बाई लड़कियां, महानगरों से भी आगे हैं।
यह भारत में युवाओं को सबसे बेहतर समय है। यहां आपको आधी रात में भी हाईवे पर काम करती हुई लड़कियां दिख जाएंगी। लड़कियों ने हर क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को साबित किया है। लड़कियां बहुत ज्यादा कॉन्फीडेंट हुई हैं। जब बेटियां सुरक्षित महसूस करती हैं, तो वह देश उतनी ही ऊंची उड़ान भर सकता है।
परिवार में हर एक की कुछ जिम्मेदारियां निश्चित होती है। स्त्री और पुरुष दोनों से ही कुछ न कुछ अपेक्षा रहती है। इस संदर्भ में तो यह सही है। पर दुखद ये है कि स्त्रियों से अपेक्षा के प्रति एक धारणा बना ली है। तब परेशानी शुरू होती है, जब हम एक को भूलकर, दूसरे पर दबाव बनाना शुरू कर देते हैं।
आप परिवार से बाहर चाहें जो कुछ भी हैं, घर के भीतर अपनी भूमिका को भुला नहीं सकते। ये स्त्री और पुरुष दोनों के लिए जरूरी है। पिछले कुछ वर्षों में पुरुषों की ओर से एक समझदारी का भाव उभर कर आया है।
स्त्रियों को अधिकार और दायित्वों के बीच भी संतुलन बनाने का प्रयास करना चाहिए। मैं अपने घर में खाना बना रही होती हूं या बच्चों का टिफिन बना रही होती हूं, तो कोई कम मालिनी अवस्थी नहीं हो जाती। रही बात रूढ़ियों की, तो बहुत कुछ हम सभी को झेलना पड़ा है। एक सोशल कंडीशनिंग हम सब की है। इसके बावजूद आत्मबल, स्वाभिमान में आज की स्त्री बेजोड़ है।
मैंने खुद भी ऐसा समय जिया है, भारत की सत्तर प्रतिशत महिलाएं आज भी यह सत्य जीती हैं, कि जो घर में बना है वही खाएंगी। जो सब के लिए बना है वही खाएंगी। अलग से कुछ बनाना चाहेंगी, तो मन में यही रहता है कि कोई क्या कहेगा। अपने स्वास्थ्य को इग्नोर करने के बहुत सारे सामाजिक कारण रहे हैं।
खासतौर से महिलाओं की निजी स्वच्छता और जरूरतों के प्रति हमेशा से समाज लापरवाह रहा है। अब भी कई परिवारों में बेटे और बेटियों के लिए अलग मानदंड हैं। ऐसे में कैल्शियम डेफिशिएंसी महिलाओं में नहीं होंगी, तो किस में होगी।
असल में पाश्चात्य चीजों का अनुसरण करते हुए हमने अपना आहार खाे दिया और इसका खामियाजा हमारी सेहत को उठाना पड़ा। पर अब समय बदल रहा है। गेंहू, बाजरा, जौ के प्रति हम फिर से जागरुक हुए हैं।
मैं खुद बरसों तक एनीमिक रही हूं। शाकाहारी हूं, तो खानपान को लेकर बहुत परहेज रहता है। पालक और अनार को अपने आहार में शामिल करके मैं इस कमी से उबरी हूं। एक मेंटल प्रेशर रहता है बेवजह का, अपने खाने के प्रति। इसे छोड़ना पड़ेगा, अपने लिए खाने की पहल करनी होगी।
खासतौर से मेनोपॉज के बाद महिलाओं को अपने स्वास्थ्य का बहुत ख्याल रखना चाहिए। इसके बाद अचानक कैल्शियम की कमी हो जाती है।
मैंने सेहत के मोर्चे पर बहुत सारी लड़ाइयां लड़ी हैं, तब जाकर ये सक्रियता बरकरार रख पाई हूं। मुझे फ्रोज़न शोल्डर भी हुआ है। मुझे ट्यूमर हो गया था, जिसकी सर्जरी करवानी पड़ी। सर्जरी के बारहवें दिन मैं मंच पर थी। यह मेरा व्यस्ततम समय था। पर योग और व्यायाम ने इस स्थिति में मेरी मदद की। साथ ही अपने आहार का बहुत ध्यान रखती हूं।
अभी कुछ समय पहले बैठे-बैठे मेरा पैर फ्रेक्चर हो गया। मैं हैरान थी कि मैं न फिसली, न गिरी, तब ये फ्रैक्चर कैसे हो गया। तब डॉक्टरों ने बताया कि ये स्ट्रेस फैक्चर है, जो ज्यादातर डांसर्स या एथलीट्स के पैर में हो जाता है, क्योंकि वे ज्यादा सक्रिय रहते हैं। कैल्शियम की डोज़ बढ़ानी पड़ी और किसी को पता भी नहीं चल पाया, कब प्लास्टर उतरा और कब हम ठीक भी हो गए।
सक्रियता आपकी जरूरत है। ऐसे में जब आप अपने आहार और व्यायाम से इस सब को समायोजित कर पाती हैं, तो चाहें कितनी भी बड़ी आपदा आए, आप उससे लड़ सकती हैं।
तीसरी चीज जो सबसे ज्यादा जरूरी है वह है मेंटल हेल्थ। मेंटल हेल्थ की वजह से कितनी ही शारीरिक अक्षमताएं हो सकती हैं। पोस्टपार्टम डिप्रेशन हो, मेरिटल प्रोब्लम्स के कारण होने वाला डिप्रेशन हो, ये ऐसे मुद्दे हैं जो महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत असर डालता है। अच्छी बात यह है कि लोग अब इन पर खुल कर बात कर रहे हैं। इन विषयों पर फिल्म बन रहीं हैं।
पहले संयुक्त परिवार होते थे, तो लोग एक-दूसरे का दुख दर्द बांट लिया करते थे। कोई बात दबी-ढकी नहीं थी। एकल परिवारों में ये चीजें कम हुईं हैं। सामाजिक जुड़ाव और संवाद का वह ढांचा बनाए रखना चाहिए। यह आपकी मानसिक सेहत के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि जब मन चंगा तो कठौती में गंगा।
शायद ये जेनेटिक हैं, क्याेंकि मेरे माता-पिता मोटे कभी नहीं रहे। जेनेटिक्स में असल में फूड हेबिट्स भी आती हैं। मेरी मां हमेशा बहुत कम खाती थीं, जबकि पिताजी को खाने का शौक था। मैं भी कभी खाने की बहुत शौकीन नहीं रही। मेरी डाइट बहुत बैलेंस रहती है। ब्रेकफास्ट और लंच अगर हैवी कर लिया है, तो मैं डिनर नहीं करती। तीन में से दो मील्स मेरे हैवी होते हैं।
योग में नियमित करती हूं। तीसरी बात, अच्छा सोचती हूं, खुश रहती हूं। जो कर रही होती हूं, पूरा फोकस उसी पर रहता है। अपने हर क्षण को पूरी ईमानदारी से जीती हूं। मन में कुछ छिपाव या विकार नहीं है। यह बहुत बड़ा कारण है, पॉजिटिव और एनर्जेटिक रहने का।
हमारी युवा पीढ़ी ने हर तरह के बायस को तोड़ा है। बस अपना एक नजरिया बदलें कि हमारी जो गांव की महिलाएं हैं, वे हमसे ज्यादा समझदार और अनुभवी हैं। उनके पास बैठिए, उनकी नाॅलेज शेयर कीजिए। सिर्फ शहरी और पढ़ी-लिखी औरतें ही ज्यादा समझदार होती हैं, इस पूर्वाग्रह को तोड़िए।
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