महिलाओं ने घर से बाहर निकल कर काम करना और पैसा कमाना तो शुरु कर दिया है, पर पुरुषों के पैर अब भी रसोई तक जाने में हिचकिचाते हैं। हाल ही में केरल बोर्ड ने अपनी पाठ्य पुस्तकों के चित्रों में बदलाव किया है। जहां पुरुष भी महिलाओं के साथ घरेलू कामकाज में हाथ बंटा रहे हैं। यकीनन इसका व्यापक असर होगा, क्योंकि किसी भी बदलाव की शुरूआत परिवार से ही होती है। इसके लिए हमें अपनी बेटियों ही नहीं बेटों को भी तैयार करना होगा। लखनऊ की रहने वाली सरित निर्झरा ने बरसों पहले यह बात सोची और अपने दाेनों बेटों और परिवार को यह समझाया कि वे सुपरमॉम नहीं हैं। इसी का परिणाम है कि वे आज बाहर निकल कर हर वह काम कर पा रही हैं, जिसे वह करना चाहती हैं। फिर चाहें छोटे बच्चों में नैतिक मूल्यों के लिए प्रोजेक्ट शुरू करना हो या एसिड अटैक से पीड़ित महिलाओं को फिर से आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासपूर्ण बनाना।
अमूमन महिलाएं अपना परिवार शुरू करने के बाद एक सीमित दायरे तक बंध कर रह जाती हैं। उनके ऊपर इतनी ज्यादा जिम्मेदारियां डाल दी जाती है, कि उन्हें अपनी पसंद-नापसंद भी याद नहीं रहती। लखनऊ की रहने वाली सरिता निर्झरा ने इस स्टीरियोटाइप को तोड़ कर, हर वह काम किया जिसने उन्हें आत्मिक संतोष दिया। फिर चाहें वह छोटे बच्चों को बाेलने और लिखने में मदद करना हो या एसिड अटैक से पीड़ित महिलाओं के आत्मविश्वास को वापस लौटाना। 46 वर्षीय सरिता निर्झरा दो बेटों की मां, लेखन और सोशल वर्क सहित और बहुत सारे दायित्वों को एक साथ निभा रही हैं। हेल्थ शॉट्स के साथ एक विशेष साक्षात्कार में उन्होंने साझा किए अपने जीवन के अनुभव और अब तक की यात्रा (Sarita Nirjhara inspirational story)।
लखनऊ की रहने वाली सरिता निर्झरा यूं तो किसी आम महिला की तरह लगती हैं। मगर उनके सपने और उन्हें पूरा करने के प्रयास उन्हें औरों से अलग बनाते हैं। निर्झरा ने इस स्टीरियोटाइप को तोड़ कर, हर वह काम किया जिसने उन्हें आत्मिक संतोष दिया।
सरिता निर्झरा को रोजाना की नौकरी और अर्निंग से वो खुशी नहीं मिली, जो उन्हें समाज के बेहतरी के लिए कार्य करने से मिलती है। निर्झरा ने बताया कि दूसरो की सहायता करना, लोगों की बात समझना उन्हें सुनना और उनके लिए कुछ कर पाना उन्हें अंदर से खुश रहने में मदद करता है। अपनी जीवन शैली बनाए रखने के लिए कमाना-खाना तो सब करते हैं, पर बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरों की मदद और समाज के बेहतरी के लिए आगे आते हैं। सरिता उन्हीं में से एक हैं, जो अपने आराम से ज्यादा दूसरों की भलाई के लिए आगे बढ़ना चाहती हैं।
सरिता सिर्फ सपने नहीं देखतीं, बल्कि उन्हें पूरा करने की कोशिश भी उतनी ही शिद्दत से करती हैं। जब उनका लेखन का मन हुआ तो उन्होंने सिर्फ अपने लेखन पर ही ध्यान नहीं दिया, बल्कि उन महिलाओं को भी मंच प्रदान किया जो लिखना तो चाहती थीं, मगर उन्हें कोई मंच नहीं मिल रहा था। इसके लिए उन्होंने कला मंथन नाम से एक प्रोजेक्ट की शुरुआत की।
हिन्दी साहित्य एवं भारतीय भाषाओं के प्रति समर्पित कला मंथन प्रोजेक्ट तमाम स्त्रियों के लेखन को निखारने और उन्हें नई पहचान देने का काम कर रहा है। जबकि इसी बैनर तले उन्होंने एक प्रोजेक्ट बच्चों के लिए शुरु किया। जिसमें बच्चों की अभिव्यक्ति और इमोशन वेलनेस पर ध्यान दिया जाता है। इसका नाम है आओ कहानी बांटें।
मंथन फाउंडेशन का यह प्रोजेक्ट बच्चों में इमोशनल वैलनेस और लाइफ स्किल डेवलपमेंट के इर्द-गिर्द काम करता है । यह अनूठा प्रोजेक्ट बच्चों में कहानियों के जरिए इमोशनल इंटेलिजेंस पर काम करता है। एंगर मैनेजमेंट, एंपेथी, गोल सेटिंग और कम्युनिकेशन जैसे लाइफ स्किल पर सेशंस कई स्कूलों में बहुत सराहे गए ।
मंथन फाउंडेशन का ही तीसरा प्रोजेक्ट प्रोजेक्ट साथ महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से बनाया गया। भारत में शिक्षित महिलाएं और बच्चियां भी सॉफ्ट स्किल, कम्युनिकेशन स्किल ,कॉन्फिडेंस में मात खा जाती हैं। प्रोजेक्ट साथ इसी उद्देश्य से स्त्रियों में सॉफ्ट स्किल डेवलपमेंट को लेकर काम करता है। इसी के अंतर्गत वे एसिड अटैक सरवाइवर्स के साथ भी काम कर रही हैं। जहां उन्हें छोटे-छोटे स्किल सिखा कर आत्मविश्वास को वापस पाने में मदद की जाती है।
सरिता कहती हैं, “बहुत से बच्चे अक्सर स्कूल में अपनी बात रखने, स्टेज पर जाने, लोगों से बात करने में हिचकिचाते हैं। वहीं स्कूल के पास पहले से मोटी-मोटी किताबों को खत्म करने का प्रेशर होता है और वे हर एक बच्चे के डेवलपमेंट पर ध्यान नहीं दे पाते। बच्चे एकेडमिक तो सीख जाते हैं, परंतु अपने जीवन में आगे बढ़ाना, लोगों से बात करना, अपनी बातों को लोगों के सामने रखना और जीवन की छोटी-छोटी नैतिकता से चूक जाते हैं।”
निर्झरा ने इन बच्चों की हिचक कम करने और सभी बच्चों को जीवन की नैतिकता और मूल्याें से जुड़ी जानकारी देने के लिए कहानियों को अपना आधार बनाया। उन्होंने बच्चों तक सभी जरूरी बातों को पहुंचाने के लिए जीवन के अलग-अलग पहलू को छोटी छोटी कहानियों के माध्यम से समझाया।
वहीं निर्झरा ने कुछ मंच की स्थापना की जैसे की कलामंच, जहां महिलाएं और सभी लोग अपनी बातों को लेखन के द्वारा कहते हैं। अक्सर महिलाओं को उनके खुद के घर में बोलने की आजादी नहीं होती, या ज्यादातर महिलाएं अपनी बात, अपनी सोच को मन में दबाए रहती हैं। मंच के माध्यम से ऐसी महिलाएं अपने विचार और भावना को खुलकर प्रकट कर पाती हैं।
सरिता निर्झरा दो बेटों की मां हैं। उन्होंने समाज से बदलाव की आग्रह करने से पहले अपने बच्चों से शुरुआत की। निर्झरा ने बचपन से ही अपने बच्चों को एक वर्किंग वुमेन का काम और जिम्मेदारियां समझाई हैं। उन्होंने हमेशा से उन्हें बताया कि उनकी मां वर्किंग है, वे कितनी जिम्मेदारी ले सकती है और कितनी नहीं। ऐसे में जब कल को उनके जीवन में कोई वर्किंग लड़की आती है, तो उन्हें इसका एहसास होगा कि उसे कितनी जिम्मेदारी देनी है।
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निर्झरा ने बचपन से अपने बच्चों को जीवन शैली की नियमित जरूरतें, जैसे खाना बनाना, कपड़ा धोना, घर की साफ-सफाई आदि को पूरा करना सिखाया है। आज उनके बच्चे एक बहुत अच्छे मुकाम पर होते हुए भी खाना पकाना और घर के नियमित कामकाज करना जानते हैं।
यह एक छोटी सी बात लग सकती है, परंतु आज भी समाज में ज्यादातर महिलाएं अपने घर में वहीं पुरानी रीत चलाती चली आ रही हैं। महिलाएं पूरे जीवन अपने बच्चों की देखभाल और खातिरदारी में गुजार देती है, और फिर जब कोई उनके घर बहु के रूप में आती है, तो उनसे भी वहीं उम्मीद की जाती है। इन सब से कहीं ऊपर निर्झरा ने अपनी इस सोच से समाज में एक बड़ा एग्जांपल सेट किया है।
निर्झरा से उनके मोटीवेशन का राज पूछने पर उन्होंने एक बेहद सरल जबाव दिया। उन्होंने कहां “जब लोग मेरे पास आ कर अपनी परेशानी बताते हैं और उसके हाल होने पर एक मुस्कान के साथ धन्यबाद कहते हैं, तो वहीं मुझे ऐसा लगता है कि अभी कई ऐसे और लोग हैं, जिनके चहरे पर भी ये मुस्कान देखनी है। जब महिलाएं मंच पर आ कर अपनी बातों को सामने रखती हैं और हल्का महसूस करती हैं, या बच्चे जब अपने डर को पीछे छोड़ आगे बढ़ते हैं, तो उन्हें देखकर मुझे आगे और बेहतर करने की मोटीवेशन मिलती है।
निर्झरा ने परिवार और प्रोफेशन के साथ साथ सामाजिक कार्य में भी हिस्सा लिया और सभी को बखूबी निभाया। हालांकि, शुरुआत में सभी को परेशानी होती है, और एक साथ सब कुछ संभालना बेहद मुश्किल होता है, परंतु जहां चाह है, वहीं राह है। निर्झरा स्कूल में क्लासेस लेती थी, इसके अलावा उन्होंने शुरुआत छोटे प्रोजेक्ट्स से की। धीरे धीरे जब बच्चे बड़े हुए तो उन्होंने आगे अपने प्रोजेक्ट स्थापित किए और उनपर काम करण शुरू किया। हालांकि, इस दौरान निर्झरा के परिवार ने भी उनका समर्थन किया।
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