कैंसर ने मोटिवेटर बना दिया, मिलिए लतिका बत्रा से, जो कैंसर को ‘डियर’ कहती हैं

राइटर, मोटिवेटर, थिएटर आर्टिस्ट और कैंसर सर्वाइवर लतिका बत्रा ने अपनी जिजीविषा के बल पर कैंसर जैसे घातक रोग को हराया। अपनी किताब "पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार - डियर कैंसर” में वे कैंसर को ‘डियर’ कह कर संबोधित करती हैं। उनका मानना है कि कैंसर ने उन्हें जीवन के एक-एक पल का मूल्य समझाया।
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लतिका बत्रा ने कैंसर को हारने पर किताब लिख दी। चित्र : स्वयं
स्मिता सिंह Updated: 29 Apr 2024, 15:11 pm IST
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लतिका बत्रा न सिर्फ राइटर हैं, बल्कि असल जिंदगी में भी मोटिवेटर हैं। कैंसर से जूझते हुए भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और इन अनुभवों को एक किताब के रूप में दर्ज किया। उन्हें जब कैंसर जैसी घातक बीमारी ने जकड़ लिया, तो उन्होंने रोने-दुखी होने में समय नहीं बिताया। इसकी बजाय सावधानी से रोग का इलाज और जिंदगी को सुंदर ढंग से जीने का प्रयास करने लगीं। कैंसर पर लिखी उनकी किताब  कई कैंसर रोगियों के लिए प्रेरणास्रोत बन रही है। आइये कैंसर सर्वाइवर लतिका बत्रा ((Cancer survivor Latika Batra) से जानते हैं कैंसर से उनकी संघर्ष और जीत की यात्रा के बारे में विस्तार से।

पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार, Dear Cancer

कैंसर से अपने संघर्ष के दिनों के अनुभव को लतिका बत्रा (Writer Latika Batra) अपनी डायरी में उतारने लगीं। उनके ये अनुभव “पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार, Dear Cancer “ नाम से किताब के रूप में मौजूद हैं। किताब के बारे में वे कहती हैं, ‘यह आपबीती है, जिसे मैंने कैंसर के दौरान भोगा। इसे मैंने अपने अनुभवों से सींचा और फिर शब्दों में उतारा।’ किताब के शीर्षक में कैंसर के साथ असामान्य रूप से डियर शब्द जुड़ा हुआ है। वह इसीलिए कि कैंसर ने उन्हें जीवन के एक-एक पल का मूल्य ही नहीं समझाया, बल्कि उनके जीने का नज़रिया ही बदल दिया।

परेशान हुए पर हारे नहीं

लतिका बत्रा अपनी जिंदगी को लेकर बेपरवाह थीं। पति और बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों को वे पूरा करने में तन-मन से जुटी थीं। जिस समय कैंसर उनकी देह में जड़ें जमा रहा था, उस समय वे ज़िन्दगी के भावनात्मक और आर्थिक मोर्चे पर दुरूह संघर्षमयी परिस्थितियों में भी फंसी थीं।

वे अपनी ओर जरा भी ध्यान नहीं दे पा रही थीं। तभी बायोप्सी (Biopsy), मेमोग्राफी (mammography) , अल्ट्रासाउंड (Ultrasound) जैसे सारे टेस्ट ने कैंसर होने की पुष्टि कर दी। फिर तो आगे उनके लिए सच्चाई से मुंह मोड़ना संभव ही नहीं था। लतिका ने कैंसर के बारे में जानते हुए भी न खुद को निराशा में डूबने दिया और न घर के माहौल में डर और घबराहट हावी होने दिए।

परिवार का साथ मिला

पति और दोनों बेटों ने उनका भरपूर साथ दिया।ऑपरेशन हुआ, कीमोथेरेपी (Chemotherapy) हुई। इलाज के दौरान लतिका हतोत्साहित भी हुईं। पीड़ा और परेशानियों के बीच उन्होंने खुद को घिरा हुआ भी पाया। लतिका कहती हैं, ‘उन दिनों मैंने मन को यह भरपूर दिलासा दिया कि जब तक ज़िन्दा रहूंगी, हर पल को भरपूर जीऊंगी। मैंने खुद को लेखन और चित्रकारी जैसे रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखना शुरू कर दिया। मेरी जिजीविषा ने रोग को हराने में दवाओं से बड़ा चमत्कार दिखाया।’

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कैंसर होने पर लतिका बत्रा को परिवार का साथ मिला।

डर कर बैठा तो नहीं जा सकता

जब लतिका को कैंसर का पता चला, तब वे भारत में ही थी। बायोप्सी की रिपोर्ट से स्तन कैंसर की पुष्टि हो गई थी। सेकेंड ओपीनियन के लिए सैम्पल मुम्बई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में भेजा गया। शक की कोई गुंजाइश नहीं थी।
लतिका को जब अपने पॉज़िटिव रिपोर्ट का पता चला, तो पहले झटका-सा लगा। दिल दिमाग़ शून्य हो गया। फिर सोचा, जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। जिस दिन ऑपरेशन के लिए हॉस्पिटल में भर्ती होना था, उस रात लतिका ने परिवार सहित बाहर डिनर किया और फ़िल्म भी देखी। उस ख़ुशगवार शाम के बाद वे मुश्किल दिनों का मज़बूती से सामना करने के लिए तैयार हो गयीं। वे कहती हैं, ‘मेरा बस एक ही लक्ष्य था कि इस दौरान यदि मुझे कुछ हो भी जाता है, तो मैं अपने बच्चों को अपनी खूबसूरत यादें देकर जाऊं। वे जब भी मुझे याद करें, तो जीवन से भरपूर और संतुष्ट शख़्सियत के रूप में याद करें।’

मास्टेक्टॉमी की प्रक्रिया का निर्णय

डॉक्टर ने उनकी मास्टेक्टॉमी (mastectomy) यानी पूरे स्तन को हटाने की प्रक्रिया का निर्णय लिया। राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर में सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर, आधुनिकतम चिकित्सा उपकरण एवं चिकित्सा प्रणाली उपलब्ध हैं। यहीं उनका इलाज डॉ. ए के दीवान और डॉ.डोविल की निगरानी में चला। इसके बाद 21 – 21 दिन के कीमो के छह सायकिल चले। निश्चित तौर पर ये सब सरल नहीं था। लतिका कहती हैं, ‘डर कर और हार कर बैठा तो नहीं जा सकता था।’

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राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर में लतिका बत्रा का इलाज चला।

बेचारी कहलाना पसंद नहीं

जब उनके कुछ निकट संबंधियों को इस बारे में पता चला, तो सभी का लगभग एक-सा रिएक्शन था। हाये ये क्या हो गया बेचारी को! अभी उम्र ही क्या है बेचारी की। अभी तो बच्चे पढ़ रहे हैं ,कोई सुख भी नहीं देखा। लतिका पिछली बातों को याद करती हुई कहती हैं, ‘मेरी मां और मौसी तो बेहाल सी पहुंची मुझसे मिलने। वे रो रही थीं और मैं उनके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करने में लगी थी।
मौसी कहने लगीं कि तुम रो लो थोड़ा, जी हल्का हो जायेगा। लड़की को सदमा लग गया है, कोई रुलाओ इसे। इस पर मैं ही उन्हें शांत करने लगी कि सब ठीक हो जाएगा चिंता मत करो।’ दरअसल बीमारी हमें उतना नहीं मारती जितना आसपास वालों के डरे हुए चेहरे, दया भाव और नकारात्मकता हमें मार जाती है।

व्यक्ति के तौर पर बदल देता है कैंसर

कैंसर रोग (Cancer) व्यक्ति के तौर पर भी आपको बदल देता है। जब आप प्राणघातक बीमारी, उसकी भयावता, लंबे गहन उपचार और मृत्यु को लगभग छूकर वापिस जीवन में लौटती हैं, तो आप वह नहीं रह जाती हैं जैसी आप पहले (Cancer Survivor Latika Batra) थीं। व्यक्ति को यह समझ आ जाता है कि जीवन का हर पल अनमोल है।

वे जोर देकर कहती हैं, ‘ हमें ये भी पता होता है कि लालसा को पूरा करने की जद्दोजहद में हम बहुत सारे ख़ूबसूरत और छोटे सुखों को दरकिनार करते चले जाते हैं। ये हमारे आसपास बिखरे रहते हैं। मैंने उन्हें बटोरना सीख लिया। यह मेरे जीवन का फ़लसफ़ा भी है।’

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शाकाहारी हूं और खूब सलाद खाती हूं

कैंसर ने उन्हें जीवन का मोल समझा दिया। इन अनमोल पलों में उन्होंने जीवन की आपाधापी में अधूरी छूट गई कई हसरतों को पूरा करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने अधूरे छूटे उपन्यास पूरे (Writer and motivator Latika Batra) किये। थिएटर के कई मंचों से लतिका जुड़ गईं। अब वे साहित्यिक गोष्ठियों में भी सक्रिय रूप से भाग लेती हैं। देश-विदेश के भ्रमण से घुमक्कड़ी के अपने शौक़ भी पूरे करती हैं। उन्हें कुकिंग का शौक़ भी है।

गाहे-बगाहे महिलाओं की पत्रिका गृहशोभा के कुकरी कॉलम में उनकी बनाई व्यंजन विधियां भी प्रकाशित होती रहती हैं। वे कहती हैं, ‘खुद को स्वस्थ रखने के लिए आधा पौना घंटा सुबह की सैर और फिर कुछ देर अनुलोम – विलोम का अभ्यास मुझे स्फूर्ति देता है। खानपान को लेकर ख़ास प्रिकॉशन नहीं बरतती हूं। मैं शाकाहारी हूं। इसलिए हरी सब्ज़ियां- सलाद खूब खाती हूं। भीगे हुए दो अंजीर और कुछ बादाम रोज सुबह नाश्ते के साथ लेती हूं। एक समय में एक अनाज लेती हूं। चावल और गेहूं की रोटी एक साथ नहीं लेती।’

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कैंसर ने उन्हें जीवन का मोल समझा दिया। इन अनमोल पलों में उन्होंने जीवन की आपाधापी में अधूरी छूट गई कई हसरतों को पूरा करने का निर्णय लिया।

सपने अधूरे क्यों रहें

फ़िलहाल लतिका बत्रा अमेरिका में हैं। हाल में वे पूरे परिवार सहित बहु प्रतीक्षित डिज़्नी लैंड, फ़्लोरिडा ओरलैंडों (Orlando) ट्रिप से लौटी हैं। अब जब वक़्त मिला है, तो अपने सपने पूरे कर रही हैं। अधूरे छूटे लेखन कार्य और थिएटर (Theatre activist Latika Batra) भी कर रही हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ‘बौद्ध विद्या अध्ययन ‘ में एम फ़िल किया था। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे आगे पीएचडी करें, पर वक़्त और हालात ने साथ नहीं दिया। अब यदि मौक़ा मिले, तो यह सपना ज़रूर पूरा करेंगी।

अंत में

कैंसर से पीड़ित महिलाओं से लतिका बत्रा कहना चाहती हैं, ‘ हमारे समाज में अपने स्वास्थ्य को लेकर महिलाएं जागरूक नहीं हैं। 40-45 वर्ष की उम्र के बाद नियमित रूप से हर महिला को अपना चैकअप करवाना चाहिए। ताकि रोग के उभरते ही उस पर क़ाबू पाया जा सके। ये जानना भी ज़रूरी है कि हर गांठ कैंसर नहीं होती।

रिपोर्ट यदि पॉज़िटिव आ जाये, तो कैंसर जैसे रोग का नाम सुनते ही रोगी और उसके स्वजनों में रोगी के प्रति बेचारगी, नकारात्मकता एवं निराशा घर कर जाती है। इलाज से पहले ही सब मान लेते हैं कि रोगी की मृत्यु निश्चित है। विषम परिस्थिति के लिए रोना-धोना छोड़ कर संयम और हौसले से स्थिति का सामना करना चाहिए।

cancer ke marijon ko himmat nahin harne ki seekh deti hain.
40-45 वर्ष की उम्र के बाद नियमित रूप से हर महिला को अपना चैकअप करवाना चाहिए।

आजकल तो थर्ड स्टेज तक कैंसर की रोकथाम संभव है। ज़रूरत है जागरूकता की ओर अपने शरीर में हो रहे छोटे से छोटे बदलाव के प्रति सजग (Cancer survivor Latika Batra) रहने की।’

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स्वास्थ्य, सौंदर्य, रिलेशनशिप, साहित्य और अध्यात्म संबंधी मुद्दों पर शोध परक पत्रकारिता का अनुभव। महिलाओं और बच्चों से जुड़े मुद्दों पर बातचीत करना और नए नजरिए से उन पर काम करना, यही लक्ष्य है।...और पढ़ें

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