कला मन को मोह लेती है। दिमाग को शांत करती है। यदि यह रोजगार का जरिया बन जाए, तो खुद और दूसरों को भी रिलैक्स करती है। हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले की अंजलि वकील के लिए भी कुछ ऐसा ही साबित हो रही है कला। अंजलि वकील हिमाचल की पारंपरिक हस्तकला चंबा रूमाल कला में पारंगत हैं। इस कला को उन्होंने हिमाचल से आगे बढ़ा कर देश और विदेश तक पहुंचाया। महिलाओं को उन्होंने स्वरोजगार के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित भी किया। इस पारंपरिक कला को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी (Anjali wakeel artist of Chamba Rumal) मिल चुका है।
बचपन में अंजलि किसी के हाथों में बड़ी हसरत के साथ चंबा रूमाल को देखतीं। पर पढ़ाई-लिखाई की व्यस्तता के कारण वे इस कला को सीख नहीं पायीं। अंजलि ने बताया कि उनका मायका यूं तो चंबा जिले में ही पड़ता है, लेकिन वहां इस कला का उतना प्रचार नहीं है। इस कला को सीखने का संयोग उनके पास तब आया, जब वर्ष 2006 में उनकी शादी हुई। ससुराल में उन्होंने सास को रूमाल पर कशीदाकारी करते हुए देखा।
उन्होंने देखा कि कुछ लड़कियां भी यह कला सीखने उनके पास आती हैं। तब अंजलि ने भी मन ही मन इस कला को सीखने का ठान लिया। अंजलि उन प्रशिक्षण पाने वाली लड़कियों के साथ बैठ जातीं। इस कला को जानने और सीखने की कोशिश करने लगतीं। अंजलि ने 4-5 महीने में यह कला सीख ली। अंजलि कहती हैं, “चंबा रूमाल हस्तकला काफी बारीक होती है। इसके लिए आपको जीवन भर कुछ न कुछ सीखते रहना पड़ता है। मतलब साफ़ है-आप जीवन भर स्टूडेंट बने रहिये और खुद को तरोताज़ा महसूस करते रहिये।’
रेशमी और सूती कपड़े पर सूई के सहारे महाभारत, रामायण और अन्य आध्यात्मिक पौराणिक कहानियों पर आधारित चित्र बनाये जाते हैं। इसे वॉल नीड्ल पेंटिंग भी कहा जाता है। यह हस्तकला हिमाचल के पहाड़ी जिले चंबा में फली-फूली। नेशनल अवार्ड विनर अंजलि वकील बताती हैं, ‘रूमाल के अलावा शॉल, टोपी, हाथ के पंखे, साड़ियों पर भी यह कला की जाती है। यह सुई से दोहरा टांका तकनीक यानी दोनों तरफ की जाती है। कपड़े के दोनों तरफ एक जैसा चित्र उकेरा जाता है। इसलिए दोनों तरफ की कढ़ाई में कोई अंतर नहीं दिखता है। इसलिए इसे दो रुखा टांका कला भी कहते हैं। सबसे पहले स्क्वायर कपड़े के चारों किनारियों पर पहले फूल-पत्ते या बूटी गढ़ ली जाती है। फिर पेंसिल की सहायता से बीच में चित्र बना लिया जाता है।’
हाथ से तैयार रेशम के कपड़े या बंगाल के मलमल को सबसे अच्छा माना जाता है। आमतौर पर दोहरा टंका तकनीक का प्रयोग कश्मीर में अधिक किया जाता है, लेकिन चंबा रूमाल में भी इसका प्रयोग किया जाता है। बनाए गए चित्र की लाइन बीच से कहीं टूटनी नहीं चाहिए।
फिर सिल्क के रंग-बिरंगे धागों को सूई में पिरो कर दोहरे टांके की तकनीक से आकर्षक छवि तैयार कर ली जाती है। अंजलि रूमाल की किनारियों पर फूल, मोर तथा दूसरे पशु-पक्षी के चित्र भी बनाती हैं। इसके माध्यम से वे पर्यावरण संरक्षण की सीख देती हैं।
चंबा रूमाल के बारे में एक कहानी प्रसिद्ध है। सिख धर्म के पहले गुरु गुरु नानक की बहन बेबे नानकी ने भी इसे तैयार किया था। यह रूमाल आज भी होशियारपुर के एक गुरुद्वारे में रखा हुआ है। इस हस्तकला का संबंध राज घराना से है। सत्रहवीं शताब्दी में चंबा रियासत के राज परिवार की महिलाएं शादी-ब्याह के अवसर पर इसे बनाती थीं। वे अतिथियों को उपहार स्वरूप चंबा रूमाल देती थीं।
राजा पृथ्वी सिंह ने इस कला को आम लोगों के बीच लाया। रंगमहल में इस कला का प्रशिक्षण दिलवाया जाने लगा। 18 वीं और 19 सदी में तो चंबा के राजाओं ने इस कला को विदेश तक पहुंचा दिया था। आज भी जर्मनी, हॉलैंड और लंदन के म्यूजियम में चंबा रूमाल संग्रहित है।
अंजलि चंबा रूमाल कला का प्रशिक्षण केंद्र भी चलाती हैं। डीआरडीओ की मदद से चलने वाले प्रशिक्षण केंद्र से न सिर्फ प्रशिक्षक, बल्कि प्रशिक्षण ले रही लड़कियां भी लाभान्वित होती हैं।
यह हस्तकला सीखने और उनमें प्रयोग किये जाने वाले सामान खरीदने के लिए प्रत्येक लड़कियों को डीआरडीओ की तरफ से नौ हजार रुपये दिये जाते हैं।
अंजलि बताती हैं, ‘उन्हें ऑनलाइन रूमाल के ऑर्डर भी मिलते हैं। जब मांग अधिक होती है, तो रूमाल की बिक्री भी खूब होती है।
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कस्टमाइज़ करेंचंबा रूमाल मशहूर होने के कारण उन्हें विदेश से भी ऑर्डर मिल जाते हैं। कशीदाकारी जितनी बारीक होती है, पैसे भी उतने ही ज्यादा मिलते हैं।’ चंबा रूमाल को बनाने के लिए करीब दो सप्ताह से दो महीने तक का समय लग जाता है। न सिर्फ अंजलि बल्कि उनके यहां प्रशिक्षण पाने वाली लडकियां भी इसे स्वरोजगार के रूप में अपना रही हैं।
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