ब्रेस्ट कैंसर महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। इसके बावजूद हम इससे लापरवाह रहते हैं। जबकि सेल्फ एग्जामिनेशन से हम इस समस्या को समय रहते पकड़ सकते हैं। विभा रानी कैंसर सर्वाइवर हैं। थियेटर, कविता और अपने सोशल मीडिया के जरिए वे कैंसर के प्रति महिलाओं को जागरुक कर रहीं हैं।
पढ़ते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी
नमस्कार। मेरा नाम विभा रानी है। मुंबई में रहती हूं। नौकरी करती हूं, कविताएं लिखती हूं। एक समर्पित रंग कर्मी और थियेटर डायरेक्टर भी हूं। पर इन सबसे बड़ी मेरी एक और पहचान है- जी हां, मैं कैंसर सर्वाइवर हूं। मैंने अपनी मन की शक्ति के बल पर ब्रेस्ट कैंसर को हराया है। पर यह बात भी सच है कि कैंसर आपको सिर्फ तन और धन से ही नहीं निचोड़ता, आपके मन को भी आघात पहुंचाता है। यही मैंने ठाना था, कैंसर से अपनी लड़ाई की शुरुआत में, कि मन से नहीं हारूंगी।
शुरुआत में मैं इसे बहुत लापरवाही से ले रही थी, एक गट फीलिंग थी कि मुझे कुछ नहीं हो सकता। परिवार और डॉक्टर भी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे। लापरवाही देखिए कि हर आम औरत की तरह मैं भी अपने उस चने की दाल बराबर दाने के बारे में डिस्कस करने गायनेकॉलोजिस्ट के पास पहुंच गई।
हम औरतों को अपने शरीर से बड़ा प्यार होता है, पर उसके प्रति हम उतनी ही लापरवाह भी होती हैं। वो तो भला हो धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल की उस नर्स का, जिसने कहा कि आप सीधे ओंकोलॉजी विभाग में दिखाइए, आपका टाइम बचेगा। गायनोकोलॉजिस्ट भी आपको वहीं भेजेंगी।
मैमोग्राफी से पता चला कि गांठ कुछ और ही है
मेरे लिए किसी पुरुष के सामने ब्रेस्ट खोलकर लेट जाना बहुत अजीब था। मैं भी ज्यादातर औरतों की तरह हमेशा लेडी डॉक्टर ही ढूंढती रही हूं। पर झिझक थी, जिसे छोड़ना जरूरी था। डॉक्टर ने चैक किया और “गो फॉर मैमोग्राफी, मैमो-सोनोग्राफी, बायप्सी एंड कम विथ रिपोर्ट“ का आदेश दिया। हालांकि उन्हें फायब्राइड का ही अंदेशा था।
मैं मजाक में कहती रहती थी- “मेरा ब्रेस्ट! रोलर प्रेस्ड!!” इस रोलर प्रेस्ड ब्रेस्ट ने मैमोग्राफी की तकलीफ को चौगुना कर दिया। टेक्नीशियनों की भी उलझन चुनौती की तरह मुंह बाए थी।” अगला एक महीना बहुत बिजी जाने वाला था। इसलिए मैंने आज ही सब टेस्ट करवाने की ठानी, वह भी अकेले।
बायप्सी की तकलीफ का अंदाजा नहीं था। डॉक्टर ने कहा था- “एक इंजेक्शन देकर फ्लूइड का सैम्पल लेंगे। बस!” लेकिन जब सुई चारों कोनों से कट कट मांस काटती गई तब बायोप्सी के दर्द का पता चला।
यह 18 अक्तूबर, 2013 की रात थी। ऑफिस के काम से भोपाल गई हुई थी। वहीं से अजय (अपने पति) को फोन किया तो पता चला रिपोर्ट पॉजिटिव है। पार्टी चल रही थी। मैं भी पार्टी में शामिल हुई। मन न होते हुए भी खा रही थी, हंस-बोल रही थी। दूसरे दिन फ़ैमिली डॉक्टर ने भी कन्फ़र्म कर दिया. मतलब, “वेलकम टु द वर्ल्ड ऑफ कैंसर!”
30 अक्टूबर को अजय का जन्म दिन होता है। काम की व्यस्तता में हम पिछले तीन साल से इस दिन साथ नहीं रह पाए थे। इसलिए 1 नवंबर, 2013 का दिन तय हुआ- ऑपरेशन के लिए।
वर्षों पहले कैंसर से मामा जी को खोने के बाद दो साल पहले ही अपने बड़े भाई और बड़ी जिठानी को कैंसर से खो चुकी थी। घाव ताजा थे, दोनों ही पक्षों से। इसलिए दोनों ही ओर के लोगों को संभालना और उनके सवालों के जवाब देना…बड़ी कठिन स्थिति थी। हमने निर्णय लिया कि इलाज का प्रोटोकॉल तय होने के बाद ही घरवालों या हित-मित्रों को बताया जाए।
निस्संदेह कैंसर भयावह रोग है। यह इंसान को तन-मन-धन तीनों से तोड़ता है और अंत में एक खालीपन छोड़ जाता है। लेकिन इसके साथ ही यह भी बड़ा सच है कि हम मेडिकल या अन्य क्षेत्रों के प्रति जागरूक नही होते। जब तक बात अपने पर नहीं आती, तब तक अपने काम के अलावा किसी भी विषय पर सोचते नहीं। इससे भ्रांतियां अधिक पैदा होती हैं। कैंसर के बारे में भी लोग बहुत कम जानते हैं। इसलिए इसके पता चलते ही रोगी सहित घर के लोग नर्वस हो जाते हैं।
हम भी नर्वस थे। मेरा एक मन कर रहा था, हम सभी एक-दूसरे के गले लगकर खूब रोएं। लेकिन हम सभी- मैं, अजय, मेरी दोनों बेटियाँ- तोषी और कोशी – अपने-अपने स्तर पर मजबूत बने हुए थे।
ऑपरेशन, उसके बाद की कॉम्प्लीकेशंस और न न करते हुए भी अंतत: केमो करवानी ही पड़ी। उसके साइड इफेक्ट्स और ज्यादा भयावह। नहाने गई तो रोती ही रही, अजय और बेटी ने संभाला। मुझे लगा मैं बहुत भयावह लग रहीं हूं, पर बेटी ने मुझे अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है, तुम अभी भी वैसी ही प्यारी लग रही हो।‘
16 केमो के बाद रेडिएशन। फिर से उसका पूरा प्रोटोकॉल। प्रभावित जगह पर पानी, साबुन, क्रीम का प्रयोग वर्जित। ब्रेस्ट के कारण गले पर भी असर पड़ा। आवाज़ फट सी गई।
केमो के दो सप्ताह तक मैं उठने की हालत में नहीं रहती। उसके बाद एक सप्ताह “बेहतर” रहती। साप्ताहिक केमो मे तो और भी मुश्किल थी। जब तक तबीयत थोड़ी संभलती, फिर से नए केमो का दिन आ जाता। लेकिन अपने इन तथाकथित ‘बेहतर’ दिनों को मैंने तीन भागों में बाँट दिया- लिखना, पढ़ना और वीडियो बनाना।
खूब किताबें पढ़ीं- हिन्दी, अँग्रेजी, मैथिली की। लिखा भी- कई कहानियाँ, कविताएँ और नाटक “मटन मसाला चिकन चिली।” उसे प्रोड्यूस किया। समरथ CAN शीर्षक से कविताएं लिखीं। अंंग्रेजी और हिन्दी में- द्विभाषी. “सेलेब्रेटिंग कैंसर” नाम से ही आत्मकथात्मक किताब भी लिखी। यह एक प्रयास है रचनात्मक तरीके से लोगों को कैंसर के बारे में बताने का, कैंसर से न डरने का, इससे लड़ने का साहस और इसके प्रति सकारात्मकता तैयार करने का। चुनौतियों में जीना स्वभाव में है।
कुछ दिन लगते हैं, अपने-आपसे लड़ने में, खुद को तैयार करने में। लेकिन, अपना मानसिक संबल और घरवालों का संग-साथ कैंसर क्या, किसी भी दुश्वारियों से निजात की संजीवनी है। यह आपको कई रास्ते देता है- आत्ममंथन, आत्म-चिंतन, आराम, खाने-पीने और सबकी सहानुभूति भी बटोरने का (हाहाहा)। यह ना सोचें कि आप डिसफिगर हो रही हैं। यह सोचें कि आपको जीवन जीने का एक और मौका मिला है, जो शत-प्रतिशत आपका है।