एक छोटा-सा क्षण पूरे जीवन की दिशा बदल देता है। एक पल सब कुछ है, दूसरे ही पल कुछ भी नहीं ! मुझे याद है, कितनी खूबसूरत थी वह शाम जब मुझे अपनी बीमारी का पता चला था। सुनहरी धूप में दुनिया नहायी हुई थी, रेशम की तरह हल्की बहती हवा।
नहाते हुए मेरा हाथ सीने की उस सख्त गांठ पर अनायास पड़ गया था। मैं तत्काल समझ गयी, मेरी मां को भी स्तन कैंसर हो चुका था।
इसके बाद हस्पताल और लैबस् के अन्तहीन चक्कर… हाथ में फाईल लिए मैं यहां-वहां अपनी जिंदगी की मियाद पूछती फिर रही थी। कहीं कोई सटीक जबाव नहीं था। बहुत कठिन और दुरूह था सब कुछ। पहले मेरे पास एक साधारण रूटीन चेकअप के लिए भी समय नहीं हुआ करता था। बच्चों का स्कूल, यह काम, वह काम… अब समय ठहर गया था हमारे लिए।
सब कुछ छोडकर अस्पताल में पड़े थे। पीछे एक पूरी दुनिया तहस-नहस हो रही थी- बच्चे बिना टिफिन के स्कूल चले जाते, होम वर्क पूरा न होने की वजह से उन्हें डांट पडती, उनके यूनीफार्म पर प्रेस नहीं होता। संजय (मेरे पति) के हाथ खाना बनाते हुए कई बार जल चुके थे। उसदिन माही (बेटी) के लंबे बाल काटकर कंधे तक कर देने पडे। उससे चोटी बनायी नहीं जाती थी।
कितने खूबसूरत लंबे बाल थे उसके… मैंने उसे समझाया था, जब मैं घर वापस आ जाऊंगी, वह फिर से अपने बाल बढा सकेगी। उस दिन मैंने बडी मुश्किल से अपने आँसू रोके थे। आखिर किस-किस बात का दुख मनाती!
मेरा कैंसर दूसरे स्टेज पर था। गनीमत थी कि काँख के लींप नोड्स में नहीं फैला था। रिपोर्ट ने कैंसर की पुष्टि की थी- डक्टल इनवेसिव कारसीनोमा… पढकर अंदर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हुई थी। मेडिकल एनसाइक्लोपेडिया पढते रहने के कारण मैं अधिकतर बीमारियों के विषय में जानती- समझती हूं।
न जाने क्यों मैं शुरू से अस्वाभाविक रूप से शांत और सयंत थी। बहुत निरपेक्ष भाव से सब कुछ देख-सुन रही थी। जैसे यह सब मेरे साथ न होकर किसी और के साथ घट रहा हो। अंदर विश्वास था, मुझे कुछ नहीं होगा। ईश्वर के प्रति गहरी आस्था ने ही मुझे यह बल दिया था।
जीवन समर में गीता मेरा संबल थी, कृष्ण मेरे सारथी… विजयी मुझे होना ही था। अपनों का साथ तो था ही!
ऑपरेशन के करीब एक महीने बाद से मुझे केमो थेरापी करवानी पडी। छह चक्र- 21-22 दिन के अंतराल से। इसके लिए मुझे गोवा से पुणे जाना पड़ा। वहां इलाज की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं। मेरी छोटी बहन भी थी वहां।
वहां कितने बडे-बडे अस्पताल, लोगों की भीड… आदमी अचानक स्वयं को ऐसी जगह पहुंचकर खोया हुआ महसूस करता है। कैंसर डिपार्टमेंट का दृश्य ही अद्भुत होता है। सभी यहां सहमे और आतंकित दिखते हैं।
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कस्टमाइज़ करेंकितने सारे टेस्ट, कितने मशविरे और राय। मेरा जीवन अब डॉक्टरों के हाथों में था। कोई कहता है, मेरे बीमार अंग को शरीर से काटकर फेंक दिया जाय, कोई कहता है, इसकी जरूरत नहीं। मैं बस सुनती थी।
मेरी दुनिया बदल गयी है- सिरे से ! पहले सबकुछ टेकेन फॉर ग्रॉटेड हुआ करता था, अब कुछ भी निश्चित नहीं। एक कदम उठाते हुए नहीं जानती, दूसरे कदम पर क्या घटनेवाला है।
केमो लेने के लिए 10-12 घंटे बिस्तर में बिना हिले-डुले पडे रहना पडता है। केमो का असर दो, तीन दिन बाद शुरू होता है। इस दौरान परहेज करना जरूरी है। साफ-सफाई, ताजा भोजन, यह नहीं, वह नहीं… डॉक्टर की कडी हिदायतें… साथ में दवाइयां…।
उसके बाद भी कई दिक्कातें आती हैं। ब्लड काउंट कम हो गया। आँखों में इनफेक्शन, सीने में दर्द… डायबिटीज है, उच्च रक्तचाप भी। इन्हें संभालना बहुत जरूरी है। ऐसे में कीमो रोकनी पड़ती है। और दूसरी दिक्क तों का इलाज करना होता है।
लोग मुझे मेरी आंखों और बालों से ही पहचानते थे- बंगाली बाला- बडो-बडो चोख, एक माथा चुल… जिंदगी के कुछेक नियामतों में से एक मेरे बाल थे- खूब लंबे, घने, बकौल सबके रेशम से… केमो के पहले चक्र में ही झड़ गये ! सुबह उठकर आईने में देखा, बाल जटा बनकर पीछे लटक रहे हैं, सामने का पूरा हिस्सा साफ ! गंजे माथे पर बिंदी कितनी भद्दी लग रही थी !
संजय-मेरे पति-कभी उन्हें किसी को हाथ भी लगाने नहीं देता था, आज उसी को हाथ में कैंची लेकर मेरा सर मुंडाना पडा…! गर्मी हो रही थी, बालों के उतरते ही माथे की त्वचा में हवा लगी, ठंडा हो गया। सोचा सबके कुछ न कुछ फायदे होते हैं। बी पॉजीटिव ! जयश्री बी पॉजीटिव !
दो दिन सर पर रूमाल लपेटकर घूमी, फिर छोड़ दिया- मुझे नहीं छुपना है, कोई अपराध नहीं किया है मैंने। बस, परिचित देखते तो पहचान नहीं पाते। बेटे ने कहा, मां नाउ यु लुक लाईक ए बुद्धीस्ट मॉन्क… चलो, बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा भी पूरी हो गयी।
अस्पताल के बिस्तर में पडे़-पडे़ बस मैंने सपने देखे और इंतजार किया- न जाने किन-किन चीजों का- अपने घर लौटने का, एकबार फिर छत में बैठकर बारिश देखने का, अपनों के बीच होने का।
इस बीच मेरे लेखन ने मेरा साथ दिया- हर जगह, लंबे इंतजारों के बीच- हस्पताल के बिस्तर पर, डॉक्ट रों के क्लीनिक में, लैब में- लिखती रही… मेरे अंदर कोई चिंता, डर नहीं था, कुछ थी तो बस गहरी चाह और उम्मीद।
पहले लिखकर अपनी रचनाएं बिस्तर के नीचे छिपाकर रख देती थी, मेरे बिस्तर के नीचे न जाने कितनी कविता, कहानियां आज भी दबी पडी हैं। पहली बार इच्छा हुई कि मेरी बात लोगों तक पहुँचे, गोवा में हिन्दी पत्रिकाएं मिलती नहीं। कहीं से कुछ पते मिले तो बिना सोचे-समझे उन पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं भेज दीं।
पहली कहानी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘हंस’ में मुबारक पहला कदम के लिए स्वीकृत हुई। इसके साथ ही छपने का सिलसिला चल निकला- कथादेश, वागार्थ, पाखी, परीकथा, नया ज्ञानोदय, वसुधा, कथाक्रम आदि-आदि… शायद कुछ बुरा होता है कुछ बहुत अच्छा होने के लिए ही। आज मेरे पास कई उपन्यास और ढेरों कहानियां हैं।
जिस दिन मेरा रेडियेशन खत्म हुआ था, मैं उसी दिन घर वापस आ गयी थी। घर लौटकर मैंने महसूस किया था, मैंने अपने परिवार को इन कई महीनों में कितना मिस किया था। जो बात, जो दुख मैं खुद से भी छिपाती थी, वह इस कैंसर से भी ज्यादा तकलीफदेह थी, इससे भी ज्यादा कठिन… जीवन छूट जाए, मगर मेरे अपने नहीं… अपनी माही से लिपटकर मैं उस दिन बहुत रोयी थी। खुशी में रोने का यह मौका मुझे बहुत दिन बाद मिला था।
घर लौटकर मैंने एक नये सिरे से जीवन को जीना शुरू किया है। छोटे-छोटे निवालों में- अपने घर के टेरस में बैठकर एक कप चाय पीना, सुबह का अखबार पढना, बच्चों की खुशियां, इनमें जीवन का भरपूर स्वाद है और मैं इन्हें पूरी तरह एन्जॉय करना चाहती हूं।
कैंसर के बाद के इफैक्ट अब भी झेल रहीं हूं। पर हिम्मेत नहीं हारी हूं। हर मुश्किल से मुकाबला कर सकती हूं, क्योंकि मेरे अपने मेरे साथ हैं। मेरा परिवार, मेरे दोस्त और मेरा लेखन। इन्होंने ही तो मुझे मेरे जीवन के सबसे मुश्किल समय में संबल दिया। शु्क्रिया इन सभी का।