नमस्कार, मेरा नाम शेरी वर्मा है और मैं दिल्ली में रहने वाली 24 वर्षीय कंटेंट राइटर हूं। और मैं वर्षों से एक मानसिक परेशानी से जूझ रही हूं।
मैं सिर्फ चार साल की थी, जब मेरे माता-पिता अलग हो गए और मैंने अपनी मां और उनके परिवार के साथ रहना शुरू कर दिया। बचपन में मुझे खूब लाड़-प्यार मिला, इनमें मेरे नाना-नानी, अंकल, आंटी सब शामिल थे। मेरे बहुत अच्छे दोस्त और सहेलियां थीं। जिनके साथ मेरी बहुत अच्छी बॉन्डिंग रही है। मैं कह सकती हूं, कि छोटी-मोटी परेशानियों के बावजूद मेरा बचपन काफी खुशहाल था।
2008 में, जब मैं 12 वर्ष की थी, तब मेरी मम्मी ने फिर से शादी की और उस वजह से मुझमें गुस्सा बहुत बढ़ गया। उन्होंने यह फैसला लेने से पहले मुझे बिल्कुल भी बात नहीं की थी। सच्चाई यह थी कि हम अब एक नए व्यक्ति के साथ आगे बढ़ने जा रहे थे, इस बात ने मुझे और भी परेशान कर दिया।
पीछे मुड़कर देखती हूं, तो समझ नहीं पाती कि 12 वर्षीय वो लड़की अपने सौतेले पिता से मिलने वाले मौखिक और कभी-कभी शारीरिक दुर्व्यवहार के प्रति भी चुप क्यों रहती थी! वह लगातार मुझे और मेरी मां को बहुत बुरा भला कहा करते थे। उनके साथ रहना किसी दुःस्वप्न के साकार होने जैसा था। हम एक ऐसे घर में रह रहे थे, जहां लगातार झगड़े होते रहते थे। मैंने उनसे सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की कई बार कोशिश की, पर हर बार नाकामयाब ही रही।
इस सब के बावजूद इस बात ने मुझे बहुत ठेस पहुंचाई कि मेरे प्रति उनके खराब बर्ताव के बावजूद मेरी मां उन्हें खुश करने की कोशिश करती रहती थी। उनकी ये हरकतें मुझमें उपेक्षा का भाव ला रहीं थीं।
स्वाभाविक है, इससे मेरे और मम्मी के बीच दूरियां आनी शुरू हो गईं। मुझे नहीं पता था कि इस सबसे कैसे बाहर निकलना है, तो मैंने खुद को ही नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। हालांकि, मुझे बाद में समझ आया कि कुछ गंभीर मानसिक समस्याओं की शुरूआत के संकेत थे।
भले ही स्कूल में मेरे काफी सारे दोस्त थे और मैं एक आउटस्पोकन लड़की थी। तब भी कोई भी मेरी मदद कर पाने में सक्षम नहीं था। जब मैंने कॉलेज जाना शुरू किया और मेरे अंदर की नकारात्मक भावनाओं ने मुझ नए दोस्त बनाने से रोक दिया। मैं नए बदलावों के प्रति ज्यादा परेशान होने लगी और नए लोगों की भीड़ मुझमें एंग्जायटी ही पैदा कर रही थी।
ऐसा समय भी आया जब मैं कॉलेज जाने के बारे में घर में झूठ बोलने लगी। कभी-कभी मैं आधे रास्ते से ही लौट आती थी। पैनिक अटैक के डर से कभी-कभी मैंने घर से बाहर कदम रखना भी छोड़ दिया था। मुझे हमेशा यह डर लगा रहता था कि क्लास में या लेक्चर के बीच में मुझे पैनिक अटैक आ जाएगा।
मैं लंबे समय तक अपनी तकलीफ पर चुप रही। आखिरकार कुछ दोस्तों और मेरे एक करीबी रिश्तेदार, मेरे चचेरे भाई ने मेरे पैनिक अटैक्स पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने एक मनोचिकित्सक के साथ मेरी मीटिंग करवाई। इसके बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे मदद की ज़रूरत है और जो कुछ भी मेरे साथ हो रहा था वह सामान्य नहीं था। 2016 में, मुझे बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी डिसऑर्डर और जनरलाइज्ड एंग्जायटी डिसऑर्डर होने के बादे में पता चला।
बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी डिसऑर्डर का मतलब है कि आपका मिजाज हमेशा बहुत गुस्से में रहता है और लगातार रहता है। आप ब्लैक या वाइट लैंस से ही दुनिया को देखना शुरू कर देते हैं। इसके अलावा, जनरलाइज एंग्जायटी डिसऑर्डर में आप हर वक्त चिंता से घिरे रहते हैं।
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कस्टमाइज़ करेंअपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए मैंने दवाएं लेनी शुरू कर दीं। लेकिन इससे हालात और भी खराब हो गए। एंटी-डिप्रेशेंट यानी अवसाद से बचाने वाली दवाएं लेने का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि आप आत्मघाती विचारों से घिरे रहते हैं। ऐसी दवाओं के अनपेक्षित ओवरडोज ने ऐसी स्थिति उम्पन्न ेर दी। जब मैं खुद को मारने की कोशिश करने लगी। दुर्भाग्य से, अगले दो वर्ष तक इस तरह की घटनाएं होती रहीं।
मेरी सेहत में सुधार के लिए, मुझे आंशिक तौर पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहां मुझे द्विपक्षीय व्यवहार चिकित्सा प्रदान की गई थी। मैंने अपनी समस्याओं से निपटने के लिए कई वैकल्पिक और उपयोगी कौशल सीखे, जिससे मैं बिना खुद को नुकसान पहुंचाए या जरूरत से ज्यादा शराब पीकर खुद को नुकसान पहुंचाने की बजाए भी ओवरकम हो सकती थी।
उपचार के आठ सप्ताह बाद, मैं अपनी मां और सौतेले पिता के साथ वापस उसी माहौल में रहने लगी। यह उन बुरी यादों में फिर से लौट जाना था, जिनसे मैं बचना चाहती थी।
इस वास्तविकता से बचने के लिए, मैंने खुद को फिर से मारने की कोशिश की। जिसकी वजह से मुझे दो सप्ताह तक अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। हालांकि, ठीक होने के बजाय, मैंने अस्पताल में भी खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की। तीसरे आत्मघाती हमले के बाद मुझे अहसास हुआ कि इस तरह कोई भी मेरी मदद नहीं कर सकता, सिवाए मेरे।
छुट्टी मिलने के बाद, मैंने तय किया कि मुझे उस घर में वापस नहीं लौटना है, जहां पहुंचकर मैं अपना जीवन ही खत्म कर देना चाहती हूं। अपने माता-पिता से दूर जाने के बाद मैंने खुद के बारे में सोचना और खुद पर काम करना शुरू किया। आखिरकार एक नई दवा शुरू की, जो मुझे मेरे फैमिली डॉक्टर ने दी थी। यह दवा वाकई अच्छी थी, और इसे लेने के बाद मैं काफी स्थिर महसूस करने लगी।
बस जब मुझे लगा कि चीजें मेरे लिए अच्छी तरह से काम करने लगी थीं, तो अचानक मेरे नजदीकी दोस्तों में से एक मित्र का निधन हो गया। इस घटना ने मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया। इस दोस्त के चले जाने ने मुझे एक नया सबक सिखाया। मुझे यह अहसास हुआ कि मेरे किसी भी चाहने वाले को उस पीड़ा और दर्द से न गुजरना पड़े, जिस दर्द से हम सब गुजर रहे थे। और तब मैंने फैसला किया कि भले ही मुझे आत्मघाती विचार आएं, पर मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी, जिससे मुझे नुकसान पहुंचे। विडंबना ही है कि मेरे करीबी दोस्त के निधन ने मुझे फिर से जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया।
अब, मैं पहले की तुलना में बहुत बेहतर महसूस करती हूं। अब मैंने खुद पर काम करना भी शुरू कर दिया है। मैंने अपने मिजाज को नियंत्रित करने के लिए सही दवा लेनी शुरू कर दी है। पर किसी भी और चीज से ज्यादा मैं सकारात्मक सोच पर भरोसा करती हूं। मेरा मानना है कि रिकवरी एक नॉन लीनियर प्रोसेस है। जिसके बारे में यह नहीं कह सकते कि यहां सिर्फ अच्छी चीजें ही पॉजीटिव इफैक्ट कर पाएंगी।
मुझे अभी भी अपने विचारों के साथ हर रोज मुकाबला करना पड़ता है। बिस्तर से उठने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है। पर पिछले कुछ वर्षों में काफी कुछ बदल गया है। मेरी सोच में काफी बदलाव आया है। मैंने बाकी चीजों को छोड़कर वर्तमान में रहना सीख लिया है।
इसके साथ, मैं कह सकती हूं कि मेरी जिंदगी को मेरे कुछ अच्छे-बुरे अनुभवों ने ऐसा बनाया। तब भी मुझे अपने आप पर गर्व है।