उम्र 44 की है, पर बीस की उम्र की एक चंचल लड़की अब भी उनकी आंखों में ठहरी है। कहानियां, कविताएं लिखती हैं, ‘वाह वाह क्या बात है’ के मंच पर पहुंची तो अपनी कविताओं से सबको दीवाना बना दिया। बागवानी और संगीत का शौक है और इन दिनों व्यस्त हैं अपने आगामी उपन्यास को लिखने में।
दो-चार ठोकरों पर जो सफर समेट लेते हैं, कंचन सिंह चौहान की जिंदगी उनके लिए सबक है – कि जिनमें आगे बढ़ने का हौसला होता है, रास्ते की कोई मुश्किल उन्हें रोक नहीं पाती। उत्तर प्रदेश सरकार के शुगरकेन डेवलपमेंट डिपार्टमेंट में कार्यरत कंचन सिंह चौहान तब 13 महीने की थी जब उनके शरीर पर पोलियो ने अटैक किया।
वे बताती हैं, “पोलियो के कारण मेरे दोनों पैर, कमर और दाहिना हाथ, गर्दन तक का हिस्सा बेकार हो गया था। मेरी गर्दन ऐसे लुढ़क जाया करती थी, जैसे चार महीने का बच्चा अपनी गर्दन नहीं संभाल पाता। पूरे परिवार के लिए यह समय बहुत शॉकिंग, काफी तनावपूर्ण था।”
“मम्मी -पापा किसी भी तरह मुझे ठीक कर लेना चाहते थे। मेडिकल ट्रीटमेंट के अलावा जो भी उपचार जहां से भी पता चलता, वे आजमाते। आयुर्वेंदिक तेलों की मालिश से लेकर और भी कई उपचार उन्होंने किए। पर कोई फर्क नहीं पड़ा। डॉक्टरों ने यह कहकर और निराश कर दिया, कि अगर आप इसे अमेरिका भी ले जाएं तो भी इसका उपचार नहीं हो सकता।”
फिर उन्हें डॉ. आनंद शर्मा के बारे में पता चला, जो योगाश्रम चलाया करते थे। कंचन के माता-पिता उन्हें उसी योगाश्रम में ले गए। वहां कुछ अलग तरह से उपचार किया गया। खास तेलों की मालिश और औषधियों के साथ ही यहां कंचन को व्यायाम करवाया जाता और घंटों धूप में लेटाया जाता।
इस उपचार का असर हुआ और कंचन ने नए सिरे से अपने शरीर को महसूस करना शुरू किया। अपनी जगह से खिसकना, गर्दन संभालना, बैठना वे छह साल की उम्र में सीख रहीं थीं और परिवार हर सफलता को सेलिब्रेट कर रहा था। जब जून महीने की चिलचिलाती धूप में उन्हें बाहर लेटा दिया जाता था, तब उनकी बड़ी दीदी उन्हें प्रेरक कहानियां सुनातीं। कल्पानाओं के पंख देतीं कि देखो तुम दौड़ने लगीं।
कोई भी कंचन को स्कूल में एडमिशन देने को तैयार नहीं था। तब मां ने उन्हें घर पर ही पढ़ाना शुरू किया।
चौथी कक्षा में उन्हें स्कूल जाने का मौका मिला। यह किसी सपने के सच होने जैसा था। वे कहती हैं, “बच्चों ने हमेशा मुझे सपोर्ट किया। मैं चल नहीं पाती थीं, फिर भी खेलते समय वे मुझे पकड़ कर ग्राउंड में ले आते और मैं उन्हें खेलता देखकर खुश होती। जबकि टीचर्स का व्यवहार हमेशा उपेक्षापूर्ण रहा करता था। एक दिन होमवर्क नहीं कर पाई तो टीचर का कहना था, पैर तो खराब है क्या हाथ भी काम नहीं करते?”
कंचन कहती हैं, वह कल्पनाओं से भरा पूरा समय था। सब बच्चे मतलब-बेमतलब हरदम दौड़ते रहते हैं, मुझे सिर्फ बैठे रहना था। वो गति जो पैरों में नहीं हो पाती थी, दिमाग में हलचल मचाए रखती। तब छह साल की उम्र में पहली कविता और नौ साल की उम्र में मैंने अपनी दूसरी कविता लिखी – तुम दौड़ोगी, तुम भागोगी! यह कविता जब मां ने सुनी तो वे कभी हंसतीं थीं, कभी रोती थीं। मां ने ही कहा, कि कविताएं लिख लिया करो। तब मुझे समझ आया कि मैं जो अपने विचार कहती हूं, वह कविता हैं।
जिस स्कू़ल में कंचन पढ़ा करतीं थीं वह सिर्फ आठवीं तक था। नौवीं क्लास में एडमिशन एक और चुनौती थी। “सब जन प्राइवेट सलाह देते थे पर दीदी जिद पर अड़ी थीं कि कंचन रेगुलर स्कूल जाएगी। मैं भी सामान्य दुनिया में शामिल होना चाहती थी। मेरे लिए स्कूल जाना हमेशा किसी रोमांच से कम नहीं रहा। तब व्हील चेयर इतनी आसानी से नहीं मिला करती थीं, और मेरे पास तो वह सर्टिफिकेट भी नहीं था, जो व्हील चेयर के लिए जरूरी होता है।”
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कस्टमाइज़ करें“पिताजी ने एक बढ़ई से बात करके मेरे लिए एक खास चेयर बनवाई, जिसमें पहिए लगाए गए। पर समस्या देखिए कि इंटरमीडिएट की प्रिंसीपल ने उस चेयर को ले जाने की भी परमिशन नहीं दी। और तब दीदी ही मुझे हर रोज स्कूल लेकर जातीं और साथ लेकर आती। मैंने कभी अक्षमता को आढ़े नहीं आने दिया और हर वह विषय पढ़ा जिसमें मुझे रुचि है। मुझे होम साइंस की क्लास छोड़कर मैथ्स की क्लास में जाना होता था। तब दीदी अपनी क्लास छोड़कर आतीं थीं और मेरी क्लास बदलवाया करतीं थीं। यह हर रोज का रूटीन था।”
चोट और असफलता नए सबक दे रही थी। कभी एक साथ भीड़ गेट से बाहर निकलती तो उनके पैर कंचन के हाथों को रौंदते हुए चले जाते। हालत ये थी कि म्यूाजिक कंपीटिशन में पुरस्कार जीतने पर कंचन को पुरस्कार देने वाली जज और प्रिंसीपल जब मुड़ीं तो उनके सैंडिल के नीचे ही कंचन की दो अंगुलियां कुचल गईं।
जब तक बोन्स पूरी तरह से डेवलप न हों तब तक ऑपरेशन नहीं हो सकता था। जख्म कंचन के शरीर का हिस्सा बन गए थे। जब दसवीं में पहुंची तो पिताजी का भी देहांत हो गया। दीदी के ससुराल जाने के बाद से इस दूसरी घटना ने कंचन को और भी अकेला कर दिया। परिवार का माहौल काफी बदल गया।
अब निचला हिस्सा कुछ मजबूत होने लगा था तो मां और भाइयों ने ऑपरेशन करवाने का मन बनाया। नतीजतन कंचन को 12 वीं की परीक्षाएं छोड़नी पड़ीं। 1992 में पहला ऑपरेशन हुआ और उन्हें कैलीपर्स लग गए। अब वे बैठी हुई नहीं थी, लोगों को दिखाई देने लगीं। दूसरा ऑपरेशन ज्यादा खर्चीला था। उसके बाद कैलीपर्स लगे, जिसके कारण कमर का हिस्सा छिला ही रहता, कमर से कपड़े कट जाते। फिर भी ये आत्मनिर्भरता थी।
2001 में कंचन सिंह चौहान सरकारी नौकरी में आ गईं, लेकिन पहली ज्वॉइनिंग मिली आंध्र प्रदेश में। कानपुर से आंध प्रदेश का सफर बहुत आसान नहीं था। उस पर अकेले रहने का फैसला, कंचन की मां अवसाद में चलीं गईं। पर कंचन ने हिम्मत नहीं हारी। तेलुगू सीखी और खुद को अपग्रेड किया। मां और दीदी ने आत्मनिर्भरता का जो पाठ घर में पढ़ाया था वह, वहां काम आया।
वे कहती हैं, “मेरे पास डरने का विकल्प नहीं था। मुझे सिर्फ आगे बढ़ना था हर हालात में। मेरा एक दोस्त था, वह अकसर कहता था कि सोना कहीं भी रहे, वह अपनी वैल्यू खुद बताता है। वह मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया। पर जब साल भर बाद वापस लौटी तो उसका देहांत हो चुका था। उसने जो आत्मविश्वास और सपने मुझे दिए, वे हमेशा मेरे साथ रहे।”
एक साल के बाद मेरा लखनऊ ट्रांसफर हो गया। कुछ वर्ष दीदी के साथ रही पर 2007 में मैंने आत्मनिर्भर रूप से अलग रहने का फैसला किया। घरवाले बहुत चिंतित थे, लेकिन अंत में सबको मेरी बात माननी पड़ी। पहले स्कूटी खरीदी, फिर कार चलाने लगी। मेरे एक मित्र अवधेश त्रिपाठी भी लंबे समय तक मेरे साथ रहे, उनकी शादी हुई तो उनकी पत्नी भी मेरे परिवार का हिस्सा बन गईं। फिर लगा कि अब उन्हें भी अलग रहना चाहिए।
सब अच्छा चल रहा था पर 2010 में बड़े भैया का देहांत हो गया और 2013 में दीदी का। यह मेरे लिए अवसाद भरा समय था। मैं इतना टूट चुकी थी कि आत्महत्या की भी कोशिश की। पूरी तरह दवाओं पर निर्भर रहने लगी। एक दिन अचानक ख्याल आया कि मेरा दिमाग ही मेरी ताकत है। अगर मैं इसे नहीं संभाल पायी तो कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाऊंगी। और फिर धीरे-धीरे दवाओं पर निर्भरता कम की। लेखन में खुद को ढालने की कोशिश की। यह मेरे लिए बड़ा संबल बना।
2017 में अपनी पसंद का हरे-भरे बगीचे से घिरा घर बनाया। ऐसा घर जहां मेरे लिए सभी जरूरी सुविधाएं हों। यहां मैं आत्मनिर्भर होकर रह सकती हूं। शादी के भी बहुत से प्रस्ताव आए पर मैंने अकेले रहने का फैसला किया। मैं जितनी अकेली होती गई, उतनी आत्मनिर्भरता बढ़ती गई।
अब लेखन ही मेरा हमसफर है। हिंदी और अंग्रेजी में मास्टर्स किया। संगीत में प्रभाकर कर चुकी हूं। खूब कविताएं लिखीं, कहानियां लिख रही हूं। राहत इंदौरी, कुमार विश्वास के साथ मंच साझा किया। हर खुशी को खुल कर जीती हूं। चाहती हूं कि मुझमें ये उत्सवधर्मिता हमेशा बनी रहे।