जिंदगी में जो मिला है उसका जश्न मनाएं, मिलिए डाउन सिंड्रोम जागरुकता के लिए काम कर रही पारुल सिंह से

डॉक्टर और वैज्ञानिक किसी भी बीमारी के उपचार में मदद कर सकते हैं, पर मुकाबले की जिम्मेदारी उससे पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार की होती है। मिलिए ऐसी ही एक मां पारुल सिंह से, जो अपनी डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बेटी चांदनी को जिंदगी सेलिब्रेट करना सिखा रहीं हैं।
प्‍यार इस दुनिया का सबसे जरूरी क्रोमोजोम है। चित्र : पारुल सिंह
योगिता यादव Updated: 27 Oct 2023, 12:54 pm IST
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अक्टूबर डाउन सिंड्रोम अवेयरनेस मंथ (Down syndrome awareness month) है।  यह (Down syndrome) एक जेनेटिक डिसऑर्डर है, जो दुनिया भर में 1000 बच्चों में से किसी एक को होता है। इसलिए हम इन्हें स्पेशल चाइल्ड (Special Child) कहते हैं और उन्हें रंगों और खुशियों भरा जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। लोग इसके बारे में और ज्यादा जानें और डाउन सिंड्रोम से पीड़ित लोगों की मदद करें,इसी उद्देश्य से अक्टूबर का पूरा महीना डाउन सिंड्रोम जागरुता (Down syndrome awareness) के लिए समर्पित किया गया है। आइए मिलते हैं एक ऐसी मां से जिसने डाउन सिंड्रोम से पीड़ित (Down syndrome success story) अपनी बच्ची के लिए  दुनिया की हर खुशी ढूंढ लाने का बीड़ा उठाया है।

हालांकि 21 मार्च को डाउन सिंड्रोम जागरुकता दिवस के लिए समर्पित किया गया है। इसकी वजह है इसका ट्राइसोमी 21 होना। जिसमें गर्भ के दौरान बच्चे में 21वें क्रोमोजोम की 3 कॉपी बन जाती हैं। जिसके कारण उसके गुणसूत्र प्रभावित होने लगते हैं।

ये हैं पारुल सिंह और उनकी बेटी चांदनी (Parul Singh mother of Chandni)

नमस्कार मेरा नाम पारुल सिंह है। और मैं एक स्पेशल मॉम हूं, क्योंकि मेरी बेटी चांदनी एक स्पेशल चाइल्ड है। उसे भगवान ने क्रोमोजोम के गणित से नहीं अपनी पवित्र भावनाओं से निर्मित किया है। दुनिया भर के वैज्ञानिक अभी इस पर शोध कर रहे हैं, कि क्यों कोई बच्चा उनके क्रोमोजोम की संरचना को नकार कर अपने हिसाब से बनता है।

खैर, यह दुनिया शोध और अनुसंधान से बहुत बड़ी है। ऐसी बहुत सारी चीजें हैं, जिन पर आप अपना सिर धुन सकते हैं, पर जवाब नहीं मिलता। बस एक प्यार ही है जो आपको लाजवाब कर सकता है। और इसमें मेरी बच्ची की झोली भरी हुई है। चांदनी के लिए हमारा प्यार और हमारे लिए चांदनी का प्यार किसी से ज्यादा ही होगा, कम नहीं।

पारुल सिंह

क्या है डाउन सिंड्रोम 

यह बस एक तथ्य है कि मेरी बच्ची डाउन सिंड्रोम (Down syndrome) की शिकार है। एक ऐसी स्थिति है जिसमें बच्चेप का मानसिक और शारीरिक विकास अपनी उम्र से काफी पीछे रहता है।
मेडिकल टर्म में बात करूं तो आमतौर पर, भ्रूण में हर क्रोमोजोम (गुणसूत्र) की दो प्रतियां होती हैं। डाउन सिंड्रोम में क्रोमोजोम 21 (chromosome 21) की पूरी या आंशिक तीन प्रतियां होती हैं। इसे trisomy 21 भी कहा जाता है।

और यह कैसे होगा, क्यों होगा, इसका निर्धारण कोई नहीं कर सकता। न ही इसकी कोई दवा या परहेज है, जिसे आप अपना सकते हैं।

गर्भावस्‍था में कुछ जटिलताएं थीं

मेरी गर्भावस्था के दौरान चौथे महीने से कुछ जटिलताएं आनी शुरू हो गईं थीं। आठवें महीने के अंत में सी सेक्शन से प्रसव हुआ। मुझे यह पता था कि डाउन सिंड्रोम एक डिसएबिलिटी है। पर बस उतनी ही जानकारी थी जितनी एक साइंस स्टूडेंट को होती है।

चांदनी और पारुल सिंह। चित्र : पारुल सिंह

सिजेरियन के टाइम एनेस्थेटिस्ट मेरी फ्रेंड के हसबैंड थे। जन्म के समय चांदनी का वजन सिर्फ 1 किलो 400 ग्राम था। उन्हें जन्म से ही पता था कि बच्ची में यह समस्या है पर मुझे किसी तरह का धक्का  न लगा इसलिए 15 दिन तक बात मुझसे छुपायी गई। बच्ची के कमजोर होने के कारण उसे नर्सरी में भेज दिया गया था।

पर मां से बच्‍ची कैसे दूर रह सकती है

तब हम बिजनौर में रहा करते थे। मेरठ से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर यह एक छोटा सा शहर है। उस छोटे शहर मे मेरे अलावा पूरे मोहल्ले को मेरी बच्ची के बारे में पता था। मैं अकसर सोचा करती थी कि क्यों जरा सी पहचान वाले लोग भी मेरी बच्ची को देखने आ रहे हैं। पर यह पता चलना ही था, मां से एक बच्चे की पहचान आखिर कितने दिनों तक छुपा कर रखी जा सकती है।

आजकल प्रेगनेंसी में ट्रिपल टेस्ट होता है, जिससे बच्चे की मानसिक ग्रोथ के बारे में पता चलता है। अमूमन 30 वर्ष से ज्यादा की उम्र में मां बनने वाली महिलाओं में इसका जोखिम ज्यादा होता है, इसलिए डॉक्टर इसकी सलाह देते हैं। पर मैं सोचती हूं कि अगर मुझे पहले भी पता होता, तो मैं क्या करती। गर्भ में आने के साथ ही बच्चेे से मां का संबंध स्थापित हो जाता है। और मेरे लिए उस संबंध को नकार पाना आसान नहीं था।

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दुनिया भर में इस पर शोध हो रहे हैं। चित्र: पारुल सिंह

इस पर भारत और दुनिया भर में काफ़ी बहस छिड़ी हुई है कि क्यों क्रोमोजोम 21 की तीसरी कॉपी तैयार हो जाती है, मैंने भी ऐसी कई मेडिकल कॉन्फ्रेंस अटेंड की हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी इस संदर्भ में मामले दायर हैं।

हम भी इस रिसर्च का हिस्‍सा हो गए

चांदनी के आते ही हम भी इस रिसर्च का हिस्सा हो गए। बिजनौर से 160 किमी का सफर करके हमें दो महीने में एक बार हॉस्पिटल आना होता था। और फि‍र चांदनी की स्कूलिंग की सुविधा भी दिल्ली में ही मिल पाई, जिसके लिए हम हफ्ते में तीन दिन बिजनौर से दिल्ली आया करते थे। छुट्टी तक वहीं इंतजार करना।

2 महीने में एक बार गंगाराम हॉस्पिटल के जेनेटिक डिपार्टमेंट मे इलाज के लिए आना होता था। जिस वक्त चांदनी का जन्म हुआ मेरी बड़ी बेटी 8 साल की थी। उसकी अपनी अलग जरूरतें और जिम्मेदारियां थीं। मुझे अब और मजबूत होना था।

डाउन सिंड्राेम में मददगार थेरेपी 

हालांकि इसका कोई इलाज नहीं है। पर इसके कारण जो समस्या़एं आती हैं, उन्हें दूर करने की कोशिश की जाती है। लो मसल टोन, बोलने और चलने में असमर्थता, आंखों की परेशानी आदि।

इसके लिए स्पीच थेरेपी (speech therapy), ऑक्यूंपेशनल थेरेपी (occupational therapy) , फि‍जियोथेरेपी (physiotherapy), थायरॉइड (thyroid), आइसाइट (eyesight) और कुछ बच्चों को हृदय संबंधी परेशानियां भी होती हैं। उनकी बचपन में ही ओपन हार्ट सर्जरी करवानी पड़ती है। पर चांदनी को यह नहीं थी।

चांदनी। चित्र: पारुल सिंह

6 महीने मे चांदनी ने गर्दन संभालना, 11 में बैठना और 18 महीने में चलना सीख लिया था। जब चलना शुरू किया तो चलते-चलते दरवाजे, दीवार या चीजों से टकरा जाती। तब पता चला कि आंखें बहुत कमजोर हैं। दो साल की उम्र में उसके चश्मे का नंबर -11 था। फिर एम्स (Aiims) और गंगाराम अस्पाताल मे आंखों का इलाज चला और चश्मा लगा।

और हो गई चश्‍मे से दोस्‍ती

चांदनी अपनी मर्जी की मालिक, चश्मा लग तो गया पर पहने कौन! और भला क्यों ? अकसर उतार कर तोड़कर फेंक देती। 6 महीने लगे उसे चश्मान पहनना सिखाने में। उसे टीवी देखना काफी पसंद था तब भी। तो मैं उसे गोद में लेकर बैठी रहती। चश्मा आंखों पर लगाकर हाथ पकड़कर बैठ जाती। धीरे-धीरे उसे समझ आने लगा कि चश्मा लगाने से टीवी ज्यादा अच्छा दिखता है।

तब से आज तक सुबह उठकर वह सबसे पहले चश्मा पहनती है। हालांकि अब उसके चश्मे का नंबर बढ़ते हुए -18 हो गया है। यानी वह डायनिंग टेबल के कांच जितना मोटा चश्मा लगाती है।

पुरस्‍कार ग्रहण करती है चांदनी। चित्र: पारुल सिंह

पर यह सब उपकरण है, जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए। इसलिए इनकी आदत डालनी पड़ती है। सबसे ज्यादा जरूरी होता है हमें खुद को मानसिक और भावनात्मक रूप से तैयार करना। हर मां की तरह मैं भी अपने बच्चे को परफेक्ट देखना चाहती थी। कभी-कभी बहुत डाउन फील करती कि आखिर हमारे ही साथ ऐसा क्यों हुआ? पर ऐसा नहीं है।

दुख नहीं सुख ढूंढिए 

ऐसे और बहुत से लोग हैं, जिनकी स्थिति हमसे भी ज्यादा दुखद है। बेटी को लेकर एक बार गंगाराम हॉस्पिटल गयी थी। डाक्टर का कमरा खोजते हुए मैं गलती से पीडियाट्रिक कैंसर वार्ड में पहुंच गई। कॉरिडोर के दोनों तरफ़ कमरे थे। हर कमरे में 6-7 बेड, हर बेड पर एक बच्चा। पास में एक मां। गले में, नाक में नलियां लगे हुए बच्चे, बालों के बगैर नन्हें-नन्हें, गोल-मटोल, दुबले-पतले बच्चे। बच्चों के साथ कुछ माएं भी बिना बालों के, एकदम गंजी थीं, जो उन्हें गोद में लिए बैठीं थीं।

दुख नहीं सूख ढूंढने की कोशिश कीजिए। चित्र: पारुल सिंह

बच्चे की दौड़ने भागने की जिद किसी मां के लिए कितनी प्यारी होती है। पर इन्हें अपने बच्चों को इससे भी रोकना था। उस एक पल ने मेरी सोच, मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल दी। मुझे खुद के खास होने का अहसास हुआ।

कोई लम्हा अगर आपको छू कर तरल कर देना चाहता है, तो छू लेने दीजिए उसे। आपके भीतर दुखों और पछतावे का जो मवाद ठहरा हुआ है, उसे पिघल कर बह जाने दीजिए। अपनी रूह को पवित्र करने का सबसे अच्छा साबुन आंसू ही हैं।

शु्क्र मनाइए कि आपके पास कितना कम दुख है। यह दुनिया दुखों से भरी पड़ी है। मैं खुश हूं कि मेरी बच्चीे मुझे प्यार कर सकती है, मैं उसे प्यार कर सकती हूं। हम दोनों साथ नाचते हैं, गाते हैं, एक-दूसरे को चूमते हैं। प्यार से ज्यादा संग्रहणीय और क्या होगा इस दुनिया में।

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लेखक के बारे में

कंटेंट हेड, हेल्थ शॉट्स हिंदी। वर्ष 2003 से पत्रकारिता में सक्रिय। ...और पढ़ें

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