नमस्कार, मेरा नाम बीना जैन है। मैं दिल्ली में ग्रीन पार्क में अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहती हूं। पर कोरोना वायरस से जूझते हुए मैंने जाना कि हम सब अपने आप में कितने खास हैं और एक असीम ऊर्जा के पुंज हैं।
दोस्तों मैं आज आपके साथ कोरोना के दौरान हुई परेशानियों और उससे उबरने के अपने अनुभव साझा कर रही हूं। ताकि आप कहीं, कोरोनावायरस के बारे में फैली हुइ भ्रांतियों से घबराकर हिम्मत न हार बैठें। यकीन कीजिए हमारी हिम्मत, आपसी प्रेम और आस्था के सामने हर वायरस बौना है।
हमारे घर के 6 सदस्य एक के बाद एक कोरोनावायरस से संक्रमित हो गए। जिनमें मेरी गर्भवती बेटी, जिसकी डिलीवरी एक सप्ता्ह के अंदर ही होनी थी, वह भी शामिल है।
मेरी बेटी मेरे पास मिलने के लिए आई हुई थी। शाम से ही उसे सिरदर्द और गला खराब होने के लक्षण दिख रहे थे। अगले ही दिन उसका बुखार 100 डिग्री हो गया। सभी की तरह हमने भी यही सोचा कि शायद वायरल हो रहा है। क्योंकि अब तक हम सभी तरह की सावधानियां बरत रहे थे।
उसके अगले दिन मेरे पति और बेटे को भी बुखार आ गया। तब भी हमने उसे मौसमी बुखार ही समझा। उसके अगले दिन मुझे और मेरी धेवती को भी बुखार आ गया।
इसी तरह तीन-चार दिन गुजर गए। मेरी बेटी का डॉक्टर के साथ अपॉइंटमेंट था, तो दामाद जी उसे दिखाने ले गए। दामाद जी को भी दो दिन से बुखार आ रहा था। डॉक्टर ने कहा कि बच्चे का एमनीओटिक फ्लूड, जिसमें बच्चा सुरक्षित रहता है, वह कम हो रहा है। जो कि बच्चेा के लिए खतरे की बात हो सकती है। इसलिए हमें आज ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। लेकिन पहले कोविड का टेस्ट करना जरूरी है।
टेस्ट के बाद जब बेटी और दामाद दोनों का ही कोविड पॉजिटिव आया, तब डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए। उनका कहना था कि अब यह उनका केस नहीं है।
आपको इनकी अलग स्पेशल ऑपरेशन थियेटर में डिलीवरी करवानी पड़ेगी। अब समस्या आई कि कोविड के नाम से सभी दूर भागते हैं, तो डिलीवरी कहां करवाएं। अब हम सब के लिए भी कोरोना टेस्ट करवाना जरूरी हो गया था। और जब यह टेस्ट हुआ तो हम सब भी पॉजिटिव पाए गए।
दो दिन बाद एक बड़े अस्पताल में मेरी बेटी की डिलीवरी हुई। इसे आपदा ही कहेंगे कि भरा पूरा परिवार होने के बावजूद उसे डिलीवरी के लिए अकेले जाना पड़ा। और चार दिन तक वह वहां अकेली ही रही। सौभाग्य से बच्ची कोविड नेगेटिव थी। पर इसके बाद एक मां का स्ट्रगल शुरू हुआ।
मेरी बेटी को उसकी बच्ची को दिखाया भी नहीं गया। बच्ची को नर्सरी में भेज दिया गया और बच्ची की पहचान के लिए, बेटी के देवर जी को वहां बुलाया गया। उसके सास-ससुर 70 वर्ष से अधिक आयु के थे, इसलिए उन्हें भी वहां जाने की अनुमति नहीं मिली।
वो समय मेरे परिवार के लिए सबसे कष्ट प्रद और चिंता वाला था। हॉस्पिटल में आने के बाद भी नवजात शिशु 20 दिन अपनी मां से दूर दादी के पास रहा। परिवार होते हुए भी कोई भी किसी भी तरह की मदद करने में असमर्थ था।
इधर मैं और मेरे पति अगले दिन अस्पताल चले गए और वहां एडमिट होकर 12 दिन बाद वहां से लौटे। बीमारी तो ठीक हो गई, लेकिन कमजोरी से उबरने में काफी वक्त लगा। एक महीना बीत जाने के बाद भी हमारी कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव नहीं आई।
मेरा बेटा जो घर पर ही क्वारंटीन था, उसे खांसी के साथ-साथ ब्लड भी आता था। और कोई भी अस्पताल बिना एडमिट किए उसका एक्सरे करने को तैयार नहीं था।
हम जिस अस्पताल में एडमिट थे, हमने वहां के डॉक्टर साहब से रिक्वेस्ट की। जब बेटे का एक्सरे और सीटी स्कैन हुआ तो पता चला कि उसे निमोनिया हो गया है। और उसका इलाज काफी लंबा चला। अब हम सब ठीक हैं।
इस दौरान हमने बस यही संकल्प लिया था कि जो समस्या आई है, उसका सामना पूरी हिम्मत के साथ करना है। एक-दूसरे के सहयोग और ईश्वर पर असीम आस्था ने हमें इस कठिन समय से निकलने में मदद की। इस मुसीबत ने हमारे आपसी प्रेम को और गहरा किया।