मेरठ में पली-बढ़ी डॉ सुरभि सिंह (Dr. Surbhi Singh inspiring story) पिछले 18 वर्ष से एक गायनीकोलॉजिस्ट के तौर पर प्रैक्टिस कर रहीं हैं। पर सिर्फ इतना ही नहीं है उनका परिचय। वे सच्ची सहेली (Sachi Saheli) नामक गैर सरकारी संगठन की संस्थापक हैं। सच्ची सहेली के माध्यम से वे मेंस्ट्रुअल हाइजीन और सेक्सुअल हेल्थ के बारे में जागरुकता बढ़ा रहीं हैं। खास बात यह कि वे सिर्फ दिखाने में ही नहीं, बल्कि ऑनग्राउंड काम करने में भरोसा करती हैं। यही वजह है कि 2014 में जम्मू-कश्मीर की बाढ़ के समय वह डॉक्टरों के उस समूह में शामिल थीं, जो उन विपरीत हालात में भी महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवा रहे थे। वे क्या करती हैं, और अब तक कैसा रहा उनका सफर आइए हेल्थ शॉट्स शी स्लेज (Health shots She Slays story) के इस साक्षात्कार में जानते हैं उनसे उन्हीं के बारे में।
मेरी परवरिश बहुत ही कंजर्वेटिव फैमिली में हुई है। जहां लड़कियों को आगे की पढ़ाई करने के लिए भी जिद्दोजहद करनी पड़ती थी। हालांकि मां ने मुझे हमेशा सपोर्ट किया। वे खुद बहुत इंटेलीजेंट थीं और चाहती थीं कि उनकी बेटियां अच्छी पढ़ाई करें और आत्मनिर्भर बनें।
जब मैंने दसवीं पास करके साइंस लेने का फैसला किया था, तो घर में पूरी एक पंचायत बैठी थी कि लड़की को साइंस दिलवानी चाहिए या नहीं। वे चाहते थे कि ऐसी कोई आसान पढ़ाई हो, जिसके बाद शादी करके घर बसाया जा सके। हालांकि मम्मी ने मेरा समर्थन किया, पर उनके मन में और उनके माध्यम से मुझ पर हमेशा यह दबाव रहा कि बहुत मुझे खुद को अव्वल ही लाना है। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि जैसे मैंने लड़की होकर साइंस पढ़कर गुनाह कर दिया। आगे जाकर एमबीबीएस में दाखिला हो गया, तब घरवालों को थोड़ा भरोसा हुआ।
गांव से निकला पहला परिवार था, तो हमेशा यही कहा जाता था कि अगर ये बात गांव पहुंचेगी तो कैसे लगेगा। हमेशा खुद को साबित करना पड़ा। मेरी जनरेशन में मैं पहली थी कि जिसने कोई काॅम्पीटिशन क्रेक किया था। तब थोड़ा मान बढ़ा। उसके बाद पेरेंट्स को यह लगने लगा कि ये तो अपनी मर्जी की मालिक है और ये किसी की बात नहीं सुनने वाली है।
मैंने गवर्नमेंट कॉलेज से पढ़ाई की है। मैं मानती हूं कि सोसायटी ने मुझे बहुत दिया है, अब मेरी जिम्मेदारी है कि मैं उनके कुछ काम आ सकूं। इसके लिए सिर्फ क्लीनिक में बैठे रहना काफी नहीं है। बाहर निकल कर काम करना होगा। सच्ची सहेली के साथ हम स्कूलों में कैंप लगाते हैं। शुरुआत में जब हमने स्कूलों में अप्रोच करना शुरू किया, तो एकदम से नकार का सामना करना पड़ा। ज्यादातर पढ़े-लिखे लोगों को भी लगता था कि इसमें क्या बताना है। उम्र के साथ सब कुछ अपने आप पता लग जाएगा। पर वास्तव में बहुत सारी चीजें हैं जिनका पता नहीं चल पाता।
सबसे बड़ी चुनौती तो संवाद की थी। मेडिकल की पढ़ाई करना या मरीजों से बात करना और बात है। किशोरियों और युवतियों को उनके शरीर और स्वच्छता के बारे में बताना बिल्कुल अलग है। फिर हमने इसके लिए कुछ लिटरेचर, टेक्स्ट और उदाहरण जुटाए, जिससे बातचीत को ज्यादा आसान और प्रभावी बनाया जा सके।
पेरेंट्स भी शुरु में असहज हुए। उन्हें लगता था कि ये क्या काम कर रही हूं, मैंने बताया न कि वे बहुत कंजर्वेटिव हैं और माहवारी पर बात करने में भी असहज होते हैं। पर अब समय बदल रहा है, हम सबको अपने परिवारों में इसे सजह बनाना होगा। यही काम हम सच्ची सहेली के माध्यम से करते हैं।
मुझे हमेशा यही लगता है कि किसी लड़की के साथ कुछ बुरा तो नहीं हो रहा? मैं उसकी कैसे मदद कर सकती हूं? और मेरे पास बस एक ही हथियार है, वह है नॉलेज। मैं चाहती हूं कि यह हथियार सबके हाथ में आ जाए। और वे तमाम रुढ़ियों को तोड़ फेकें।
एक साल पहले मैंने कहीं पढ़ा कि एक संस्था कैंसर रोगियों के लिए हेयर डोनेट करवाती है। मैं खुद एक कैंसर सर्वाइवर रही हूं और उस मानसिक स्थिति को समझती हूं, जब किसी स्त्री को कैंसर के कारण अपने बाल खोने पड़ते हैं। मैंने तय किया कि मैं भी इस काम में उन्हें सपोर्ट करूंगी। अपने जन्मदिन से एक दिन पहले अपने हेयर शेव करवा लिए।
पर जब वह फोटो मैंने अपने फैमिली ग्रुप में डाला तो एक तरह से तूफान आ गया। ज्यादातर का सवाल यही था कि ऐसा क्या हो गया, इसके पति ठीक हैं या नहीं। मम्मी बार-बार सवाल करतीं, शुरुआत में पति और बच्चों को भी यह अजीब लगा। मगर मैंने यह तय कर लिया था कि मुझे यह करना है और मुुझे अपने किए पर भरोसा होना चाहिए। मेरे शरीर पर मेरा अधिकार है, और मैं कम से कम यह फैसला तो ले ही सकती हूं।
अमूमन हमारे समाज में सभी पिता, माता, भाई, बेटा लड़कियाें की ऑनरशिप ले लेते हैं। यह गलत है, मैं किसी को अपनी ऑनरशिप नहीं देना चाहती। मैंने अच्छा-बुरा जो कुछ भी किया, उसके लिए मैं खुद जिम्मेदार हूं।
मुझमें शायद कोई जेनेटिकली डिफेक्ट है, कि जब भी किसी स्त्री को परेशानी में देखती हूं, तो खुद को रोक नहीं पाती और दौड़ पड़ती हूं। अंदर से हमेशा एक आवाज आती है कि मैंने मेडिकल की पढ़ाई क्लिनिक के अंदर बैठकर अगले पेशेंट का इंतजार करने के लिए की थी, या वाकई मैं समाज के लिए कुछ कर सकती हूं। हमेशा मैंने अपनी अंतरात्मा की आवाज पर भरोसा किया और जब भी, जिस भी स्त्री को स्वास्थ्य सहायता की जरूरत हुई मैंने उसकी मदद करने की कोशिश की।
जब कश्मीर बीमार था, तो मुझे लगा कि मुझे वहां जाना चाहिए। हालांकि उससे पहले मेरा परिवार और मैं खुद भी कश्मीर के नाम से ही डरते थे। पर उस विपदा के समय मुझे लगा कि अगर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा। मैं वहां गई और स्वास्थ्य सेवाओं में मदद की। इसी तरह मैं अपने गांव में जाकर मेडिकल कैंप लगाती हूं, कि किसी तरह उस समाज के लिए कुछ कर सकूं, जिसने मुझे यहां तक पहुंचाया।
इसी तरह जब मैं जम्मू कश्मीर गई तो मुझे पता चला कि मेरे ससुर जी को यह बात अच्छी नहीं लगी। आठ दिन के बाद जब मैं घर लौटी तो मेरा सामान घर के बाहर रखा था, कि यह तय कर ले कि इसे घर में रहना है या साेशल वर्क करना है। मेरे पेरेंट्स उनके सामने हाथ जोड़कर बैठे हुए थे कि लड़की है, गलती हो गई, माफ कर दीजिए। मेरे पड़ोसी, दोस्त और मेरे पति उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे थे। इस सब पर घर में इतना ज्यादा हंगामा हुआ कि उन्हें एंजाइना का अटैक आ गया। और फिर उसके लिए भी मुझे ही जिम्मेदार ठहराया गया कि इसी की वजह से सब हुआ है। शायद बंटवारा झेलने वाले लोग एक अलग तरह की मानसिकता रखते हैं, एक खास समुदाय के लिए। पर मैं यह सब नहीं सोचती।
हमारे समाज में कोई भी लड़कियों को फ्री नहीं छोड़ना चाहता, बाउंड्री भले ही थोड़ी बड़ी कर देंगे, पर वह हमेशा रहेगी।
हमारे समाज में बहुत सारे टैबूज हैं, और धीरे-धीरे इन सभी को तोड़ना जरूरी है। मैं हर तरह के लोगों के बीच जाती हूं, पढ़े-लिखे, शहरी और गांव के लोगों के बीच भी। सभी में एक चीज कॉमन है कि सभी माहवारी को लेकर एक अलग तरह की मानसिकता रखते हैं। अब भी 99.9% महिलाएं पीरियड के दौरान मंदिर नहीं जातीं। वास्तव में ये सारे टैबूज महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाए रखने के लिए हैं। इनको तोड़कर ही एक स्त्री मनुष्य की तरह जी सकती है।
बलात्कार को लेकर भी एक अलग तरह की मानसिकता है। जिसने बलात्कार किया है, उसे सजा मिलने की बजाए, जिसका बलात्कार हुआ है, समाज उसी को मेंटल ट्रॉमा में डाल देता है। मैं मानती हूं कि जिसने अपराध किया है, उसे सजा मिले। पर लड़कियों को यह समझाएं कि यह भी किसी और हादसे की तरह है, जिसने तुम्हें चोट तो पहुंचाई है, पर यहीं आपकी जिंदगी का अंत नहीं है। आप इससे भी आगे बढ़ सकती हैं। अगर कैंसर, पैरालिसिस अटैक से आप उबर सकते हैं, तो रेप की चोट से भी उबरा जा सकता है। बेटियों को बेचारी न बनाएं, उन्हें सपोर्ट करें।
हां यह सही है। पर इसका श्रेय हमसे ज्यादा सोशल मीडिया को जाता है। मोबाइल और इंटरनेट के एक्सेस ने बहुत सारी चीजों तक पहुंच बड़ा दी है। वरना पहले तो लोगों के माइंड में ही यह नहीं था कि इन मुद्दों पर बात की जाए। अब जब हम स्कूलों में कैंपेने के लिए जाते हैं, तो लड़काें को क्लास से बाहर नहीं किया जाता, बल्कि वे भी जानना और समझना चाहते हैं। हम लड़कों को भी जागरुक करते हैं, ताकि वे अपने परिवार की स्त्रियों को सहयोग कर सकें और एक बेहतर समाज बन सके।
हालांकि इंटरनेट पर सब कुछ अच्छा नहीं है। पर तब जिम्मेदारी परिवार और टीचर्स की भी है कि वे बच्चों को सही तरह से मार्गदर्शन करें।
हालांकि अब तक जो कुछ भी हुआ है, वह बहुत तयशुदा तरीके से नहीं हुआ है। अब भी यही सोचती हूं कि जो भी जरूरत महसूस होगी, उस पर काम करते जाएंगे। इन दिनों प्रीमेरिटल सेक्स बहुत आम हो गया। पर समाज में अब भी इस पर बात करने से लोग बचते हैं। जब भी लड़कियां किसी तरह की समस्या में घिरती हैं, तो वे डॉक्टर के पास जाने से कतराती हैं, क्याेंकि उन्हें लगता है कि उन्हें जज किया जाएगा।
इसके लिए हमने नॉनजजमेंटल गायनोकोलॉजिस्ट का एक समूह बनाया है। ताकि उन्हें सही जानकारी मिल सके, वे किसी तरह की समस्या में न घिरें। लड़कियां बहुत सारे गिल्ट में रहती हैं। जबकि उन्हें मदद और सहयोग की जरूरत है। केवल लड़कियां ही क्यों हमेशा गुड गर्ल बनने के दबाव में रहें। हम, पेरेंट्स और सोसायटी क्यों नहीं गुड बनने की कोशिश करते।