भारत में हर साल 1.5 लाख से अधिक लोग सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाते हैं। हर दिन हजारों की संख्या में लोग हार्ट अटैक और स्ट्रोक से असमय मृत्यु का शिकार होते हैं। अगर समय पर मदद मिलती तो आंकड़ा इतना बड़ा नहीं होता। अकसर इमरजेंसी संकेतों को ठीक से समझ न पाना और प्राथमिक उपचार में देरी के कारण उन लोगों की भी मृत्यु हो जाती है, जिन्हें बचाया जा सकता था। वह आपातकालीन एक घंटा जिसमें तत्काल स्वास्थ्य चिकित्सा मदद और देखभाल की जरूरत होती है, उसे गोल्डन आवर (Golden hour) कहा जाता है। डॉ. तौसीफ थांगलवाडी बरसों से इन्हीं इमरजेंसी सेवाओं की जरूरतों पर बात कर रहे हैं।
डॉ. तौसीफ थांगलवाडी कहते हैं, “गोल्डन आवर (Golden hour) के बारे में अब भी बहुत कम जागरुकता है। देरी की शुरुआत अक्सर लोगों में लक्षणों की जानकारी की कमी से होती है। उसके बाद अधूरी या अनुपलब्ध सेवाएं, और अंत में भीड़भाड़ या उपकरणों की कमी वाले इमरजेंसी रूम, इन सभी वजहों से गोल्डन आवर व्यर्थ चला जाता है।
ग्रामीण भारत की स्थिति और भी चिंताजनक है, अस्वास्थ्यकर कनेक्टिविटी, सीमित एंबुलेंस, और कमजोर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मिलकर ज़रूरी समय की संभावनाओं को और कम कर देते हैं। शहरी क्षेत्रों में सुविधाएं होते हुए भी ट्रैफिक, असंगठित व्यवस्था और निदान में देरी और भी नुकसानदेह साबित होती है।
गोल्डन आवर (Golden hour) में सही इलाज मिल जाए तो मृत्यु दर में 30% तक कमी लाई जा सकती है। यही कारण है कि विशेष रूप से ग्रामीण और कम सेवा-प्राप्त क्षेत्रों में आपातकालीन चिकित्सा तंत्र को सशक्त बनाना बेहद जरूरी है।”
1.4 अरब से अधिक की आबादी वाले भारत जैसे विशाल और विविध देश में आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं का एक नया दौर आकार ले रहा है। इनोवेटिव समाधान और तकनीक-आधारित सेवाएं अब यह तय कर रही हैं कि ज़रूरतमंद तक मदद कितनी तेजी से पहुंच सकती है। ब्लिंकिट द्वारा 10 मिनट में एंबुलेंस उपलब्ध कराने की पायलट पहल ने शहरी भारत में त्वरित आपातकालीन सेवाओं की ओर व्यापक ध्यान खींचा है।
रेड हेल्थ बीते 10 वर्षों से एंबुलेंस लॉजिस्टिक्स में बदलाव की अगुवाई कर रहा है, रियल टाइम ट्रैकिंग, प्रशिक्षित पैरामेडिक्स और साल दर साल सशक्त होती सार्वजनिक-निजी भागीदारी इसके उदाहरण हैं। इसी के साथ, आयुष्मान भारत हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन और 112 इमरजेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम जैसी सरकारी पहलें स्वास्थ्य सेवा की सुलभता और तत्परता को नया फोकस दे रही हैं। तमिलनाडु जैसे राज्य दिखा रहे हैं कि सुव्यवस्थित ट्रॉमा केयर सिस्टम कितनी ज़िंदगियां बचा सकते हैं।
‘गोल्डन आवर’ (Golden hour) का विचार अब सिर्फ एक चिकित्सकीय शब्द नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय चेतावनी बन गया है। सही दिशा में बढ़ते कदमों के साथ भारत ऐसा आपातकालीन स्वास्थ्य तंत्र तैयार कर सकता है जो तेज़, समावेशी और जीवन रक्षक हो।
‘गोल्डन आवर’ कोई मुहावरा नहीं, बल्कि एक चिकित्सकीय सत्य है। हार्ट अटैक, स्ट्रोक, सड़क हादसे और अन्य गंभीर स्थितियों में पहला घंटा बेहद निर्णायक होता है। इस अवधि में शुरू हुआ उपचार न सिर्फ जीवन बचा सकता है, बल्कि मरीज़ की बेहतर रिकवरी और दीर्घकालिक विकलांगता को भी काफी हद तक टाल सकता है। बशर्ते, हमारे पास ऐसी प्रणाली हो जो लक्षणों की पहचान, तेज़ परिवहन और तत्काल उपचार को संभव बना सके।
डॉ. तौसीफ के अनुसार अधिकांश लोगों को यह तक नहीं पता कि स्ट्रोक, हार्ट अटैक या गंभीर ट्रॉमा के लक्षण क्या होते हैं। नतीजा यह होता है कि जरूरी प्रतिक्रिया बहुत देर से शुरू होती है।
आपातकालीन प्रतिक्रिया सिर्फ अस्पताल पहुंचने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें रास्ते में ही जीवन रक्षक हस्तक्षेप की ज़रूरत होती है। अधिकतर क्षेत्रों में पैरामेडिक्स या तो उपलब्ध नहीं हैं या प्रशिक्षणहीन हैं। एंबुलेंस में भी जरूरी उपकरणों की भारी कमी है।
कई क्षेत्रों में एंबुलेंस या तो चल ही नहीं रही हैं या न्यूनतम मानकों को पूरा नहीं करतीं। जीपीएस से जुड़ी दिशा-निर्देशन प्रणाली अब भी आम नहीं है।
108 जैसी सेवाएं सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन राज्यों में इसकी पहुंच और संचालन में भारी अंतर हैं। समन्वय की कमी इसका असर और बढ़ा देती है।
खासकर सरकारी अस्पतालों में न तो पर्याप्त स्टाफ है और न ही स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर, जिससे ट्रॉमा केस सही ढंग से नहीं संभाले जा पाते।
विकसित देशों के विपरीत, भारत में ऐसी कोई ठोस नीति नहीं है जो सभी राज्यों और निजी अस्पतालों को न्यूनतम देखभाल मानकों और प्रतिक्रिया समय का पालन करने को बाध्य करे।
बदलाव की शुरुआत जागरूकता से होनी चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों का केंद्र आम जनता होनी चाहिए, उन्हें चिकित्सा आपात स्थिति और गोल्डन आवर के महत्व के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। प्राथमिक उपचार और सीपीआर जैसी मूलभूत ट्रेनिंग को स्कूलों, कार्यस्थलों और सामुदायिक केंद्रों में अनिवार्य किया जाना चाहिए। आपात स्थिति के शुरुआती कुछ मिनटों में की गई सही प्रतिक्रिया जीवन और मृत्यु के बीच फर्क ला सकती है।
भारत की 112 इमरजेंसी हेल्पलाइन एकीकृत आपातकालीन प्रतिक्रिया की दिशा में सराहनीय पहल है, लेकिन इसकी गति और समन्वय अभी अमेरिका की 911 जैसी वैश्विक प्रणालियों से पीछे है। सड़क दुर्घटनाओं या स्वास्थ्य संकट जैसी गंभीर स्थितियों में अधिक जानें बचाने के लिए ज़रूरी है कि 112 एक तेज़, सुचारु और समन्वित सेवा बने, जो पुलिस, एंबुलेंस और फायर डिपार्टमेंट के बीच निर्बाध जुड़ाव सुनिश्चित करे।
जन जागरूकता, प्रशिक्षित फर्स्ट रिस्पॉन्डर्स और मज़बूत आधारभूत ढांचा ही 112 को एक भरोसेमंद और जीवन रक्षक नेटवर्क में बदल सकते हैं, जो वैश्विक मानकों पर खरा उतर सके।
अस्पतालों में आपातकालीन विभाग को प्राथमिकता दें।
अब वक्त है कि इमरजेंसी मेडिसिन (Golden hour) को स्वास्थ्य सेवा के एक मुख्य स्तंभ के रूप में देखा जाए। आपातकालीन औषधि को अब स्वास्थ्यरक्षा के प्रमुख घटकों में से एक मानना चाहिये। हमें आपातकालीन चिकित्सकों की संख्या बढ़ाने, आधुनिकतम बुनियादी ढांचा बनाने और गंभीर स्थितियों में सक्षम प्रक्रियाओं के लिये निवेश करने की आवश्यकता है, ताकि भीड़ से बचा जा सके और मरीजों का आवागमन बढ़े।
हमें टेक्नोलॉजी और टेलीमेडिसिन का इस्तेमाल करना ही होगा। ग्रामीण भारत में मोबाइल की पहुँच बढ़ने के साथ, मरीज के अस्पताल पहुंचने से पहले फैसला करने में टेली-ट्रायेज, सैलूस ईएमएस और एआई पर आधारित आपातकालीन सहयोग मददगार हो सकता है।
एक राष्ट्रीय आपातकालीन स्वास्थ्य मिशन की स्थापना की जानी चाहिए, जिसमें स्पष्ट लक्ष्य, समुचित वित्त पोषण और निगरानी व्यवस्था हो। साथ ही, आपातकालीन उपचार (Golden hour) को सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुरक्षा कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति केवल आर्थिक कारणों से जीवन रक्षक चिकित्सा से वंचित न रहे।
चलते-चलते
डॉ. तौसीफ कहते हैं, “एक हेल्थ प्रोफेशनल होने के नाते मैंने वे दर्दनाक दृश्य देखे हैं, जहां प्रियजनों ने इसलिए जान गंवाई क्योंकि इलाज की संभावना नहीं थी, बल्कि इसलिए क्योंकि इलाज देर से मिला। मैंने उन संभावनाओं को दम तोड़ते देखा है, जिन्हें समय रहते बचाया जा सकता था, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमने समय (Golden hour) को गंभीरता से नहीं लिया। हमें इसे सुधारने की दिशा में काम करना होगा। गोल्डन आवर सिर्फ अमीरों या महानगरों के पास रहने वालों की “लक्ज़री” नहीं होनी चाहिए। यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार होना चाहिए।
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