हम सभी बोलना चाहते हैं, खुद को अभिव्यक्त करना चाहते हैं। पर दिक्कत यह है कि कोई किसी को सुनना नहीं चाहता। जबकि सुनने उतना ही जरूरी है जितना बोलना। खासतौर से अपने आसपास और हम पर विश्वास रखने वालों को। जब हम धैर्यपूर्वक किसी की बात सुनते हैं, तो इससे न सिर्फ उनका विश्वास आप पर बढ़ता है, बल्कि माहौल टॉक्सिक होने से बचता है। वर्ल्ड लिसनिंग डे (World listening day) पर जानिए क्यों जरूरी है अपने बच्चों को सुनना।
क्या आपको कुछ आवाजें सुनाई दे रही हैं? संभव है, सुनाई दे रही होंगी। आज 18 जुलाई को विश्व श्रवण दिवस यानी वर्ल्ड लिसनिंग डे (World listening day) है। हर साल विश्व श्रवण दिवस की मेजबानी वर्ल्ड लिसनिंग प्रोजेक्ट द्वारा की जाती है, जो एक नॉन प्रोफिट ऑर्गेनाइजेशन है। यह सुनने और सुनने के अभ्यास के माध्यम से दुनिया और उसके प्राकृतिक पर्यावरण, समाज और संस्कृतियों को समझने के लिए समर्पित है।
यह इंसान और प्रकृति के बीच एकाउस्टिक इकोलॉजी के माध्यम से संबंध स्थापित करता है। यह दिन कनाडा के पर्यावरणविद और म्यूजिक कंपोजर रेमंड मुरे शाफर की याद में मनाया जाता है, जो एकाउस्टिक इकोलॉजी के फाउंडर माने जाते हैं।
हम और हमारे बच्चे भी प्रकृति का मूल्यवान हिस्सा हैं। जिस तरह प्रकृति की आवाजों को सुनना जरूरी है, उसी तरह बच्चों की बात को भी सुनना और समझना जरूरी है। यदि हम उनकी बात सुनेंगे, तभी उनके मन और दिल की बात समझ पाएंगे। वे क्या कहना चाह रहे हैं, उनकी क्या इच्छाएं हैं और वे भविष्य में क्या बनने का सपना बुन रहे हैं और पेरेंट्स उनके सपने को पूरा करने में कितना और कहां सहयोग करें, ये सब बातें हम जान पाएंगे।
बच्चों की बात को सुनना कितना जरूरी है, इसके लिए हमने सर गंगाराम हॉस्पिटल की कंसल्टेंट सीनियर क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. आरती आनंद से बात की।
जिस तरह से गुलाब के पौधे की सही कटाई-छंटाई से वह सही दिशा की ओर बढ़ता है या हाथ लगाने पर ही मिट्टी का ढेर सुंदर बर्तन में बदल पाता है, उसी तरह जब तक हम अपने बच्चों से बातें नहीं करेंगे, उन्हें सही दिशा नहीं दिखा पाएंगे। तब तक उनका व्यक्तित्व भी सही तरीके से विकसित नहीं हो पाएगा। इसलिए हमें बच्चों से हमेशा और हर मुद्दे पर बातें करनी चाहिए, ताकि उन्हें सही-गलत का फर्क समझ में आ सके।
मुझे बेटी के स्कूल से आने के बाद उससे रोज बातें करने के कारण ही मालूम चला कि एक लड़की उसे हमेशा परेशान करने की कोशिश करती रहती है। वह उसे पीछे की बेंच पर बैठने के लिए मजबूर करती है, ताकि वह स्कूल में पढ़ाए गए लेसन को लर्न न कर पाए।
डॉ. आरती आनंद कहती हैं, “बच्चों के साथ टाइम स्पेंड करना बेहद जरूरी है। स्कूल से आने के बाद बच्चों से जरूर बातें करें। उन्हें नई-नई चीजों के बारे में बताएं। उनमें जिज्ञासा बहुत अधिक होती है। इसलिए उनके हर सवाल का जवाब देने की कोशिश धैर्यपूर्वक करें।
आपसी संवाद से ही बच्चों का मां-पिता पर विश्वास पैदा होता है। कभी उन्हें यह एहसास न हो कि आप उनकी जासूसी कर रही हैं या उनकी हर बात या एक्टिविटी को गलत समझ रही हैं। उनसे एक दोस्त की तरह हर बात शांतिपूर्वक सुनें। इससे न सिर्फ उन पर पड़ रहे पीयर प्रेशर का पता चल जाता है, बल्कि उन्हें पॉजिटिवली मोटिवेट करने का भी अवसर हाथ लग जाता है।’
यदि आपका बच्चा बात-बात पर चीखने-चिल्लाने लगता है या आपके साथ खराब बर्ताव करने लगा है, तो उसे अनदेखा न करें। वक्त की कमी होने का रोना न रोयें। समय निकालकर उनसे बातें करें। बातचीत के दौरान यह जानने की कोशिश करें कि आखिर उसके रूड व्यवहार की वजह क्या है।
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कस्टमाइज़ करेंडॉ. आरती इस बात पर जोर देती हैं कि बच्चे और पेरेंट्स के बीच ओपन कम्यूनिकेशन बहुत जरूरी है। इससे उनमें कॉन्फिडेंस और सेल्फ एस्टीम डेवलप होती है।
मेरे एक परिचित का बेटा उनसे इसलिए बुरा बार्तव करने लगा था, क्योंकि उसे अपने मां-बाप की हर वक्त की लड़ाई अच्छी नहीं लगती थी। वह उन दोनों की हरकतों से ऊब गया था। जब उसकी यह बात पेरेंट्स को पता चली, तो दोनों ने उसके सामने कभी लड़ाई न करने का फैसला किया। पेरेंट्स की लड़ाई से या तो बच्चे का आत्मविश्वास घट जाता है या फिर उनका व्यवहार उग्र होने लगता है।
क्लास के हाफ ईयरली एग्जाम में नमन एक सब्जेक्ट में फेल हो गया था। इस बात का पता नमन की मां को टीचर-पेरेंट्स मीटिंग में चला। नमन ने इस बात को छुपा लिया था।
डॉ. आरती आनंद बताती हैं कि बातचीत से बच्चे गलत राह पर नहीं जा पाते हैं। यदि आपका बच्चा अपनी कोई गलती छुपा रहा है, तो इसका मतलब साफ है कि उसकी छोटी गलतियों पर भी आपने या अन्य सदस्यों ने बहुत डांट लगाई होगी।
कई बार पेरेंट्स की अति व्यस्तता के कारण बच्चे खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं और शारीरिक रूप से गार्जियन से दूरी बनाने लगते हैं। बच्चों से बात करने पर उन्हें सेफ महसूस होता है और बातचीत के दौरान अपनी कमजोरियों और गलतियों को भी वे शेयर कर लेते हैं।
यदि बच्चे को बहुत अनुशासित रूप से रखा जाता है, तो वे बड़ों से बातचीत करना छोड़ देते हैं। पेरेंट्स भी अनुशासन के फेर में उनसे दोस्त की बजाय सिर्फ गाइड की तरह बर्ताव करने लगते हैं। कई बार तो मां-पिता बच्चों की राह में आने वाली मुश्किलों को भी हटाते जाते हैं। दोनों ही स्थितियां उनके लिए खराब हैं।
एक तरफ बहुत अधिक अनुशासन उन्हें इमोशनलेस बनाने लगता है, तो दूसरी तरफ उनके निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो जाती है। उनकी पर्सनैलिटी एक दब्बू किस्म के इंसान के तौर पर होने लगती है। इमोशन नहीं होने पर वह क्रोधी स्वभाव का भी हो सकता है। बातचीत करने से उनका व्यक्तित्व सही ढंग से विकसित हो पाता है।
कई बार बच्चे आसपास के माहौल से भी गलत बातें सीख लेते हैं। उदाहरण के तौर पर जेंडर डिफरेंस, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का भेद बच्चे घर के सदस्यों या बाहर समाज से सीख लेते हैं। इस विषय पर उनसे जरूर बात करें और इस व्यवस्था की खामियां गिनाएं। यदि आप उनसे बातें नहीं करेंगी, तो उनमें भी वैसा ही भाव बैठ जाएगा और आगे चलकर वे आदमी के बीच भेदभाव को सही मानेंगे और वैसा ही करेंगे।
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