आपने कभी ऐसा महसूस किया है कि आप अपनी ही जिंदगी से बाहर हो गए हैं, जैसे अपने शरीर को किसी दूसरे के जैसा देख रहे हैं या ऐसा लग रहा है कि आसपास की दुनिया सपने जैसी है? अगर हां, तो शायद आप डीपर्सनालाइजेशन- डीरियलाइजेशन डिसॉर्डर DDD (Depersonalization Derealization disorder) कहते हैं, के शिकार हो चुके हैं। इस डिसॉर्डर में, इंसान अपनी वास्तविकता से अलग हो जाता है। उसे ऐसा लगता है कि वह खुद नहीं है या उसे अपनी सोच या शरीर पर कंट्रोल नहीं है। आज हम इसी के बारे में बात करने वाले हैं कि इसके लक्षण, कारण और इससे बचने के तरीके क्या हैं?
न्यूरोलॉजिस्ट और सर्जन डॉक्टर मोहम्मद इकबाल के मुताबिक, जब किसी को डीपर्सनालाइजेशन (Depersonalization Derealization disorder) होता है, तो उसे ऐसा लगता है जैसे वह अपने शरीर से बाहर हो गया है। उदाहरण के लिए, वह खुद को एक बाहरी की तरह महसूस कर सकता है, जैसे वह अपने शरीर को देख रहा हो या महसूस कर रहा हो, लेकिन वह खुद उसे नहीं मान रहा है। कभी-कभी यह भी लग सकता है कि व्यक्ति अपने इमोशन्स से भी कटा हुआ है, यानी जो वह महसूस कर रहा है, वह असली नहीं है।
डीरियलाइजेशन (Depersonalization Derealization disorder) में व्यक्ति को आसपास की दुनिया असली नहीं लगती। जैसे, हर चीज़ धुंधली हो जाती है, चीज़ें सपने जैसी लगने लगती हैं। कभी-कभी यह लगता है कि लोग, जगह सब अपरिचित हैं, भले वे पहले से ही व्यक्ति को जानते या पहचानते हैं। यानी एक ऐसी दुनिया, जो सपने जैसी लग रही हो, जिसमें सब कुछ असली नहीं है।
डॉक्टर इकबाल कहते हैं कि कई बार बहुत ज्यादा तनाव या चिंता झेलने पर भी ये डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) हो सकता है।
ऐसा इसलिए होता है कि तकलीफ से बचने के लिए हमारा दिमाग खुद को असली दुनिया से अलग कर सकता है। यह स्थिति डिफेंस मैकेनिज़्म (defense mechanism) के तौर पर सामने आती है, ताकि इंसान उन इमोशन्स से बच सके जो वो झेलना नहीं चाहता।
बचपन में कोई बड़ा ट्रॉमा, मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न भी इस डिसॉर्डर को जन्म दे सकता है। कभी कभी एक्सीडेंट्स या बड़े हादसे भी इस डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) का कारण बन जाते हैं।
डिप्रेशन (Depression) और PTSD (Post-Traumatic Stress Disorder) जैसी मानसिक समस्याएं भी इस डिसॉर्डर को जन्म देती हैं। अगर कोई व्यक्ति बहुत लंबे समय से डिप्रेशन में है या उसके जीवन में कोई ट्रॉमा घटा हो तो इस डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) के चांस बढ़ जाते हैं।
बहुत ज्यादा मात्रा में ड्रग्स या शराब लेने वाले लोगों में भी ये डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) परमानेंट हो सकता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नशे की वजह से इंसान हर वक्त अपनी अलग दुनिया में रहता है और जब अचानक वो असली दुनिया से एक्सपोज होता है तो दिमाग में इस डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) के जन्म लेने की संभावना बढ़ जाती है।
डॉक्टर इकबाल से हमने यही सवाल पूछा। यह डिसॉर्डर कोई एक बार की बात नहीं है और न ही कोई इसका लिखा लिखाया नियम है कि यह कब होगा लेकिन हां, जब आप बहुत ज्यादा तनाव, चिंता या अवसाद का शिकार होते हैं, तो ऐसा महसूस हो सकता है। ट्रॉमा के केस में कई बार ये डिसॉर्डर टेम्प्रेरी रहता है क्योंकि हमारा दिमाग किसी घटना के होने को मानने से इनकार कर देता है।
अगर यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है और व्यक्ति की जिंदगी पर असर डालती है, तब यह डिसॉर्डर बन जाता है। अचानक किसी के जीवन के बड़े ट्रॉमा का सामना करने पर भी यह डिसॉर्डर शुरू हो सकता है। कभी-कभी ड्रग्स या शराब के ज्यादा इस्तेमाल से भी ये डिसऑर्डर हो सकता है। कुछ केसेस में ये जीनेटिक भी होता है।
1. खुद को दूसरे व्यक्ति की तरह महसूस करना। ऐसा महसूस होने लगता है कि व्यक्ति खुद को ही दूर खड़ा देख रहा है।
2. अपने ही शरीर के हिस्सों का आकार अजीब तरह से दिखाई देना।
3. भावनाओं का असली नहीं लगना। ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति के अपने इमोशन खत्म हो जाते हैं और वो दूसरों के इमोशन को भी समझना बंद कर देता है।
1. आसपास की दुनिया सपने जैसी लगने लगती है। बार बार ये लगेगा कि ये आपकी दुनिया नहीं है, आप किसी और दुनिया के हैं।
2. कभी कभी ऐसी स्थिति में आपको चीजें धुंधली लगने लगती हैं। आपकी जान-पहचान के लोग भी अपरिचित लगते हैं।
यह डिसॉर्डर पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है, और इसके लिए सही इलाज बहुत जरूरी है।
सीबीटी यानी काग्रिटिव बिहेवियरल थेरेपी मेंटल हेल्थ से जुड़ी समस्याओं के इलाज में मदद करती है।ऐसे केसेस में जब मरीज की स्थिति गंभीर हो तो इस थेरेपी की जरूरत पड़ सकती है।
इसमें एक्सपर्ट्स मरीज की सोच और वो बीमारी के असर में किस तरह व्यवहार कर रहा है, इसे देख कर उस अनुसार बात करते हैं ताकि डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) को धीरे धीरे कम किया जा सके।
टॉक थेरेपी में आप डॉक्टर या किसी एक्सपर्ट से अपनी परेशानियों के बारे में बात करते हैं। यह बातचीत आपकी चिंताओं को कम करती है। ये थेरेपी इस तरह से की जाती है कि इसकी मदद से आप अपने इमोशन्स से बेहतर तरीके से निपट सकते हैं।
अगर ये डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) का कारण एंजाइटी या डिप्रेशन है तो डॉक्टर एंटीडिप्रेसेंट्स या एंटीएंग्जायटी दवाइयाँ दे सकते हैं। ये दवाइयाँ दिमाग में केमिकल बैलेंस बनाए रखती हैं, जिससे आपका मूड और मेंटल हेल्थ बेहतर होते हैं।
ध्यान और योग मेंटल रिलैक्सेशन के लिए बेहतरीन उपाय हैं। ऐसी स्थिति में भी एक्सपर्ट्स इन उपायों को अपनाने का सुझाव देते हैं। ऐसा इसलिए कि जब आपका दिमाग शांत होता है तब ही आप पर इस डिसॉर्डर (Depersonalization Derealization disorder) का असर घट पाता है।
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