EXPERT SPEAK

एक पीडियाट्रिशियन बता रही हैं क्यों बच्चों और किशोरों में बढ़ती जा रही है सोशल मीडिया एडिक्शन

दुनिया भर के होनहार और बुद्धिमान कम्प्यूटर इंजीनियर सोशल मीडिया के अलगोरिदम इस तरह सेट करते हैं कि भूले-भटके साइट पर आया बच्चा बाकी काम छोड़ कर सोशल मीडिया की भूल-भुलैया की दुनिया में खो जाता है।
social media ke algorithm iss tarah set kiye jate hain ki bachche uuski jakad me aa jate hain.
सोशल मीडिया के अल्गोरिदम इस तरह सेट किए जाते हैं, कि बच्चा उस में फंस कर रह जाता है। चित्र : अडोबीस्टॉक
Updated On: 7 Nov 2024, 02:50 pm IST
  • 199

सोचिए कि आप अपने फ़ोन में फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टा या टिकटॉक डाउनलोड करना चाह रहे हों और आपको डाउनलोड करने से पहले वैधानिक चेतावनी दिखाई दे कि सोशल मीडिया आपकी सेहत के लिए हानिकारक है। यूएस के शीर्ष चिकित्सक, सर्जन जनरल डॉ विवेक मूर्ति ने ऐसी ही हिदायत यूएस कांग्रेस को पिछले कुछ दिनों में दी। उनका कहना था कि सोशल मीडिया (Social media addiction in kids) बचपन और किशोरावस्था में मानसिक स्वास्थ्य (Social media addiction in teens) पर गंभीर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।

पिछले दशक में सोशल मीडिया की लत किसी संक्रमण की तरह फैली है। लगभग हर जगह बच्चे और युवा इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। 13-17 की उम्र के बीच के  95 % बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। जिनमें से एक तिहाई इस पर लगातार बने रहते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरा है सोशल मीडिया (Social media side effects on mental health)

2019 में जानी मानी मेडिकल पत्रिका JAMA में एक लेख छपा। इस लेख में जानने की कोशिश की गई कि सोशल मीडिया पर व्यतीत किए समय का सीधा असर मानसिक स्वास्थ्य पर कितना है। इसमें पाया गया कि जो बच्चे किशोरावस्था में तीन घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं वे ख़ास तौर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी तकलीफों का सामना करते हैं।

इसका असर नींद पर भी होता है। सोशल मीडिया पर बने रहना अवसाद की ओर ठेलता है और लोगों के फेक और प्रोजेक्टड जीवन की गाथा नेगेटिव बॉडी इमेज के विकास को बढ़ावा देती है। ज़्यादा समय सोशल मीडिया पर बिताने से साइबर बुलीयिंग की घटनाएं भी बढ़ती हैं। भावनाओं का संतुलन डावांडोल हो जाता है और मन लगातार उत्कंठाओं से जूझता रहता है।

समझिए कैसे बच्चों को अपनी गिरफ्त में लेता है सोशल मीडिया का चक्रव्यूह (How social media affects children)

डॉक्टर विवेक मूर्ति ने यह बात किशोरों और बच्चों को ध्यान में रखकर कही थी। उन्होंने हाल ही में US कांग्रेस में एक एडवाइजरी जारी की। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि सोशल मीडिया का असर बच्चों और किशोरों में वयस्क लोगों से अलग है। क्या इसकी कोई ख़ास वजह है?

social media addicted hain to ye karke chhudhaye lat
सोशल मीडिया बच्चों के विकास को बाधित कर रहा है। चित्र : शटरस्टॉक

1 इसी उम्र में होता है प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स का विकास 

विज्ञान हमें बताता है कि दिमाग़ का विकास बचपन के शुरुआती तीन सालो में ही बहुत तेज़ी से होता है। किंतु एक ख़ास हिस्से का विकास किशोरावस्था के पूरा होने तक नहीं हो पाता है। इस हिस्से को प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स कहते हैं। प्री फ्रंटल कॉर्टेक्स कई चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार होता है इसमें सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात होती है ‘न करने की इच्छाशक्ति’।

2 उत्साह अधिक और समझ कम 

किशोरावस्था में दिमाग़ तेज़ दौड़ता है, कई मुश्किल सवाल आसानी से हल करने की क्षमता होती है और हर नई और ख़तरनाक चीज़ को करने के लिए मन उत्साहित होता है। वहीं दिमाग ठीक से ख़तरे भाँप नहीं पाता, आंक नहीं पाता। ऐसी स्थिति में, इस उम्र के बच्चे बहुत ही असुरक्षित होते हैं। खुद पर मंडराते ख़तरों से अनभिज्ञ और एक अजीब ओवरकॉन्फिडेन्स से भरे हुए।

Pollपोल
स्ट्रेस से उबरने का आपका अपना क्विक फॉर्मूला क्या है?

3 एंगेजमेंट ओरिएंटेड प्रोग्राम

सोशल मीडिया का रोमांच उन्हें आकर्षित करता है और वे अपना रुख़ उसकी तरफ़ कर देते हैं। यह एक लत की तरह बढ़ती हुई प्रवृत्ति बन जाता है। दुनिया भर के होनहार और बुद्धिमान कम्प्यूटर इंजीनियर सोशल मीडिया के प्रोग्राम को बनाते हैं कि भूले- भटके जो बच्चा या किशोर यहां पहुंचे उसे एक ख़ास थ्रिल और रिवार्ड सिस्टम से बांध कर रख दें। इसके पीछे का लक्ष्य होता है इनके ऑडियंस का अधिकतम एंगेजमेंट।

अलगोरिदम इस तरह सेट किए जाते हैं कि भूले-भटके साइट पर आया बच्चा बाकी काम छोड़ कर सोशल मीडिया की भूल-भुलैया में खो जाता है।

4 डोपामीन रिलीज़ होता है 

सोशल मीडिया का रिवार्ड सिस्टम इस तरह डिज़ाइन किया गया हैं कि छोटा सा छोटा हासिल भी ख़ुशी का अहसास देता है। इस ख़ुशी का आधार डोपामीन रिलीज़ होने से है। डोपामीन रिलीज़ होने पर आनंद की अनुभूति होती है। किन्तु डोपामीन एक ऐसा न्यूरो-ट्रांसमीटर है जो लत लगने के लिए और नशा चढ़ने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है।

5 बढ़ने लगती है लत

पहली बार जिस काम को करने पर ख़ुशी मिलती है उसमें जितना डोपामीन रिलीज़ होता है अगली बार उतनी ही ख़ुशी पाने के लिए उतना ही काम दोगुनी बार करना पड़ता है। उदाहरणार्थ – जो बच्चा या किशोर पहले एक लाइक से ख़ुश होता था, उसे उतनी ख़ुशी पाने के लिए बीसियों लाइक की ज़रूरत पड़ती है। यह भूख बढ़ती ही जाती है।

like, comments aur followers ki addiction ho jati hai.
इसके साथ बच्चे धीरे-धीरे और लाइक और कमेंट के लिए परेशान होने लगते हैं। चित्र : अडोबीस्टॉक

फिर उसे एक भरेपूरे ऑडियंस और फ़ॉलोवर की लिस्ट की दरकार होती है। इस तरह सोशल मीडिया पर जब पहले-पहल जो बच्चा पांच मिनट के लिए आया होता है वही बच्चा घंटों वहीं गुज़ारने लगता है।

भद्दे कंटेंट के सबसे बड़े उपभोक्ता और क्रिएटर हैं किशोर-युवा

पिछले कुछ बरसों में सोशल मीडिया, रील्स, इन्स्टाग्राम वगैरह पैसे कमाने का एक उम्दा ज़रिया भी बनकर सामने आये हैं। बेरोज़गारी भी आसमान चूम रही है। सही-सीधे रास्ते से पैसा कमाना बहुत मुश्किल है। समाज के मूल्य जिस गति से गिरे हैं वह भी इससे पहले कभी नहीं हुआ। कोविड के समय से हर किशोर-किशोरी के पास स्मार्ट फ़ोन आ गया है।

1 ये ज़रा आसान रास्ता है

पढ़-लिखकर कुछ हासिल करना, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर प्रोफेशनल कॉलेज में दाख़िला पाना, फिर नौकरी पाना…कुछ भी तो आसान नहीं रहा है। हर जगह पैसों, राजनीति और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। किशोर-किशोरी ही सबसे अधिक उदासीन हैं। इंटरनेट के तमाम उटपटांग, गंदे और अश्लील कंटेंट के एक बड़े उपभोक्ता भी यही हैं। कंटेंट क्रियेटर भी। दुख की बात है कि शोषण करते और सहते बच्चों और किशोरों को इसका ज़रा भी भान नहीं है।

2 गाइडलाइंस ही प्रेरित करती हैं 

यू- ट्यूब, टिक-टॉक, रील्स के कंटेंट कई बार वाहियात क़िस्म के होते हैं। पोर्न, सेक्सुअल कंटेंट, हिंसा यह सब आम बातें हैं। और तो और कंटेंट क्रिएशन के गाइडलाइन खुद सिखाते हैं कि हिंसा और सेक्सुअल कंटेंट का समझदार इस्तेमाल किस तरह आपकी विडियोज़ की क्लिक्स बढ़ा सकता है। ( क्यों ना आप थोड़ी तकलीफ़ उठाकर इन साइट्स के मोनेटाइज़ेशन के गाइडलाइन्स पर एक नज़र डालें?)

3 डोपामीन उसे वापस खींचता है

क्या असर होता है जब बचपन और किशोरावस्था में कोई ऐसी बातें देखे और सुने? इस उम्र की उत्सुकता उसे इस ओर और खींचती है। वह इस कंटेंट से बंधता है। वीडियो के विज्ञापनों के साथ लोगों का एंगेजमेंट बढ़ता है। ऐड कंपनी और प्लेटफ़ॉर्म की रेवेन्यू बढ़ती है। किशोर वहीं अटक जाता है। उसके दिमाग़ का डोपामीन सर्ज उसे फिर वहीं लौटने के लिए बाध्य करते हैं।

4 देखने से करने तक 

एक वीडियो देखना उसके लिए कम पड़ने लगता है। वो एक के बाद एक वीडियो देखता चला जाता है। जब सिर्फ वीडियो देखना उसे तृप्त नहीं करता, तब वह कृत्य पर पहुंच जाता है। यही एडिक्शन का विज्ञान है। यही पोर्न देखने की सबसे बड़ी मुश्किल भी। थोड़े में आनन्द अनुभव करने पर, दिमाग और की मांग करता है। फिर और से भी तृप्त नहीं होता।

धीरे-धीरे व्यक्ति इन आदतों का गुलाम हो जाता है। जो देखता है वह एडिक्ट हो जाता है। बनाने वाले पर भी इस तरह के व्यवहार से पैसे कमाने का नशा हावी होता चला जाता है। फायदा एड कम्पनी को होता है। और उस प्लेटफ़ॉर्म को जो यह सहूलियत मुहैया करवाती हैं।

डॉक्टर विवेक मूर्ति कहते हैं कि ज़रूरी है कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ माता पिता पर न लादी जाए। सोशल मीडिया कम्पनी पर दबाव डाला जाना चाहिए कि वे अपने प्रोग्राम और एल्गोरिदम बच्चों को फंसाने के लिए विकसित न करें। ऐसा करने पर दंड का प्रावधान होना चाहिए।

Socia media par nakel kasna bahut zyada zaruri hai
सोशल मीडिया के लिए सख्त नियम-कानून बनाए जाने अनिवार्य हैं। चित्र : अडोबीस्टॉक

बच्चों और युवाओं के भविष्य के लिए जरूरी है सोशल मीडिया पर नकेल कसना

1.उपलब्धता जटिल बनााएं

नीतिनिर्माता ऐसे क़दम उठाए कि सोशल मीडिया बच्चों को इतनी आसानी से उपलब्ध ना हो। एक न्यूनतम उम्र दर्ज हो जिससे छोटी उम्र के बच्चे सोशल मीडिया में एकाउंट नहीं खोल सकें। सोशल मीडिया पर सुरक्षा का ध्यान रखा जाए, बच्चों की निजता का सम्मान किया जाए और सोशल मीडिया डिजिटल और मीडिया लिटरेसी को बढ़ावा दे।

2. प्रभाव का आकलन करें 

टेक्नोलॉजी कंपनी को सोशल मीडिया का असर बच्चों पर किस तरह हो रहा है उस पर नज़र रखनी चाहिए न कि उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य को ख़तरे में डालना चाहिए।

3. घर को टेक फ्री जाेन बनाएं 

माता पिता को घर में टेक फ़्री ज़ोन बनाना चाहिए । उन्हें अपने बच्चों के साथ खेलने और समय व्यतीत करने का समय निकालना चाहिए। ज़रूरी है कि उनके बीच रिश्ते और मज़बूत हों और उनका साथ होना बच्चों के विकास में कारगर सिद्ध हो।

4. निजी जानकारियों को निजी रखें 

बच्चों और किशोरों को डिवाइसेस पर समय कम बिताने का इरादा बनाना चाहिए और अपनी निजी जीवन की जानकारी सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए।

5. इंगेजमेंट रिसर्च हो 

सोशल मीडिया पर इंगेजमेंट को लेकर और रिसर्च किया जाना चाहिए ताकि हम अपने बच्चों के लिए बेहतरीन प्रैक्टिस को अपना सके।

याद रखें 

एडवाइज़री जो भी हो, जो बात ध्यान में आती है, वह यही है कि परिवार और सामाजिक रिश्ते ही इस सदी में हमें बचा सकते हैं। ढहते हुए मूल्यों को संभालने की ज़रूरत है। हमारे सजग होने की ज़रूरत है। हमारी ख़ुशी का आधार डोपामीन न होकर ओक्सीटोसिन होना चाहिए जो कि मज़बूत, आत्मीय और मधुर रिश्तों से ही संभव हैं। साथ उठना-बैठना, खेलना, रहना और जीवन के मक़सद की तरफ़ एकाग्र होना, हमें और हमारे बच्चों को बचा सकता है।

कहते हैं जब सिगरेट पर पहली बार वैधानिक चेतावनी लगाई गई और सार्वजनिक जगहों पर इनके विज्ञापनों को रोका गया, तो सिगरेट पीने वाले लोगों की संख्या काफी हद तक घट गई। सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए कोई पहल तो करनी ही होगी। क्यों न हम इस चेतावनी के साथ शुरुआत करें? शायद उसके बाद सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म और टेक-कम्पनी इस बात की ज़िम्मेदारी ले लें। सरकार ऐसे नियम लागू करें जो बच्चों और किशोरों के हित में हो।

किंतु इन सबके पहले हमें अभी ही सजग होना होगा, बात और बिगड़ने से पहले…
… हमारे बच्चों के ख़ातिर । भविष्य के खातिर ।

यह भी पढ़ें – Positive parenting : जानिए क्या है पॉजिटिव पेरेंटिंग, जो बच्चों को मजबूत और कॉन्फिडेंट बनाती है

  • Google News Share
  • Facebook Share
  • X Share
  • WhatsApp Share
लेखक के बारे में
डॉ बेजी जैसन
डॉ बेजी जैसन

डॉ बेजी जैसन 1999 में एमडी करने के बाद से भारत, दुबई और कुवैत में बाल रोग विशेषज्ञ के तौर पर प्रैक्टिस कर रही हैं। फ़िलहाल, कुवैत रॉयल सिटी क्लीनिक में कार्यरत।

अगला लेख