शिक्षा का उद्देश्य हमेशा से केवल सूचना देना नहीं रहा, बल्कि यह मनुष्य को संपूर्ण रूप से विकसित करने की प्रक्रिया है। परंतु बदलते समय में यह प्रक्रिया इतनी परीक्षा-केंद्रित हो चुकी है कि जीवन जीने की बुनियादी समझ, अपनी देखभाल, और मानसिक मजबूती को नज़रअंदाज़ किया जाने लगा है। जिसके कारण छोटे बच्चों में तनाव, हताशा और अवसाद जैसे लक्षण देखने को मिल रहे हैं। यही बच्चे बड़े होकर मानसिक रूप से कमजोर नागरिक के रूप में तैयार हो रहे हैं। जो कॅरियर, रिलेशनशिप या अन्य मुद्दों पर होने वाला जरा सा तनाव भी झेल पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। जबकि स्वास्थ्य शिक्षा (Physical health education) एक ऐसा जरूरी आयाम है, जिस पर ध्यान देकर बच्चों को शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी मजबूत बनाया जा सकता है।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बिना किसी भी छात्र के लिए अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुंचना संभव नहीं है। जिस तरह एक पौधे को केवल सूरज की रोशनी नहीं, बल्कि जल, मिट्टी और हवा की भी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार एक छात्र के समग्र विकास के लिए सिर्फ पाठ्य-पुस्तकें काफी नहीं होतीं। उसे अपने शरीर और मन की समझ भी उतनी ही ज़रूरी है।
आज भारत जैसे देश में जहां शिक्षा प्रणाली परीक्षा-आधारित मूल्यांकन पर केंद्रित है, वहां बच्चों की भावनात्मक और मानसिक स्थिति का मूल्यांकन लगभग शून्य है। शिक्षक अक्सर यह सोचते हैं कि बच्चों की चुप्पी सिर्फ शर्म या स्वभाव का हिस्सा है। जबकि वह मानसिक परेशानी का संकेत भी हो सकती है। एक बच्चा जो पढ़ाई में अच्छा है, वह अंदर से टूट भी सकता है — और अगर हम उसे नहीं समझ पाए, तो उसकी तकलीफ़ एक भारी मूल्य लेकर आती है।
बचपन में स्वास्थ्य शिक्षा देना केवल “अच्छी आदतें” सिखाने का तरीका नहीं है, बल्कि यह बच्चों को आत्मनिर्भर और आत्मसजग बनाने का माध्यम है। अगर कोई छात्र यह समझ जाए कि किसी भावना का नाम क्या है, और उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है, तो वह ज़िंदगी की कई उलझनों से खुद ही निपट सकता है।
शिक्षा नीति में अक्सर “21वीं सदी के कौशल” की बात की जाती है। इनमें संवाद कौशल, समस्या समाधान, और भावनात्मक बुद्धिमत्ता शामिल हैं — परंतु दुर्भाग्यवश, इन्हें व्यावहारिक रूप में पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बनाया गया है। क्या यह विडंबना नहीं कि हम बच्चों को कोडिंग सिखा रहे हैं, लेकिन भावनाओं को समझना नहीं सिखा रहे?
जब किसी स्कूल में स्वास्थ्य शिक्षा को समय और सम्मान मिलता है, तो छात्रों में न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है, बल्कि वे अपने सहपाठियों के साथ बेहतर सामाजिक संबंध भी बना पाते हैं। इससे हिंसा, भेदभाव, और मानसिक तनाव जैसी समस्याओं में भी कमी आती है। अमेरिका के कुछ स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य सत्रों को नियमित कक्षा की तरह शामिल किया गया है, जिससे छात्रों में आत्म-प्रकाशन की दर में बढ़ोत्तरी देखी गई है।
स्वास्थ्य शिक्षा छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों जैसे तनाव, चिंता और अवसाद से निपटने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल प्रदान करती है। इससे छात्रों में आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास बढ़ता है।
स्वास्थ्य शिक्षा छात्रों को संतुलित आहार, नियमित व्यायाम और स्वच्छता के महत्व के बारे में बताती है, जिससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है।
स्वास्थ्य शिक्षा छात्रों को नशीली दवाओं के सेवन, शराब और तंबाकू के उपयोग के खतरों के बारे में बताती है, जिससे वे इन जोखिमपूर्ण व्यवहारों से बचते हैं।
स्वस्थ छात्र बेहतर ध्यान केंद्रित करते हैं, नियमित रूप से स्कूल आते हैं और बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शन करते हैं।
भारत में अभी भी बहुत से अभिभावक इस बात को नहीं समझते कि मानसिक सेहत भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी शारीरिक सेहत। इसलिए, स्कूलों का दायित्व बनता है कि वे परिवारों को इस विषय पर जागरूक करें।
माता-पिता के साथ संवाद सत्र आयोजित किए जा सकते हैं, जहां उन्हें समझाया जाए कि बच्चों की उदासी, चिड़चिड़ापन या चुप्पी को हल्के में लेना उन्हें किस प्रकार दीर्घकालिक नुकसान पहुंचा सकता है। पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य शिक्षा का एकीकरण तभी प्रभावशाली होगा जब इसे औपचारिक रूप से मूल्यांकन प्रणाली में भी शामिल किया जाए।
अगर यह सिर्फ एक साप्ताहिक कक्षा बनकर रह जाएगी, तो इसे छात्र और शिक्षक दोनों गंभीरता से नहीं लेंगे। इसके लिए न केवल शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण देना होगा, बल्कि पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण विधियों को भी संवेदनशील बनाना होगा।
यह भी ज़रूरी है कि स्वास्थ्य शिक्षा को अलग विषय की तरह न देखा जाए, बल्कि इसे विभिन्न विषयों में एकीकृत किया जाए। जैसे इतिहास में युद्धों की चर्चा करते समय युद्धोत्तर मानसिक आघात (PTSD) की बात की जा सकती है, या साहित्य में पात्रों की भावनात्मक स्थितियों पर चर्चा की जा सकती है।
ऐसे प्रयास छात्रों में सहानुभूति और संवेदनशीलता विकसित करने में मदद करेंगे। स्वास्थ्य शिक्षा केवल हड्डियों के नाम, हृदय की कार्यप्रणाली और शरीर रचना तक सीमित नहीं है। इसमें शारीरिक फिटनेस, पोषण, मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक बुद्धिमत्ता, यौन स्वास्थ्य शिक्षा, स्वच्छता और जीवन में सुरक्षित और सूचित निर्णय लेने की क्षमता जैसी कई अन्य बातें शामिल हैं।
स्कूलों में एकीकृत स्वास्थ्य शिक्षा छात्रों के व्यवहार में दीर्घकालिक सुधार लाती है, जो उनके औपचारिक शिक्षा पूर्ण होने के बाद भी उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाती है, जैसा कि कनाडाई जर्नल ऑफ ग्लोबल हेल्थ (CJGH) के एक अध्ययन में उल्लेखित है- “स्वास्थ्य शिक्षा का एक पहलू ऐसा भी है जो अक्सर चर्चा से बाहर रह जाता है — यौन शिक्षा। यह विषय अभी भी कई स्कूलों में वर्जना बना हुआ है। जबकि किशोरावस्था में सही जानकारी का अभाव कई समस्याओं को जन्म देता है।
यदि बच्चों को शुरुआती उम्र से वैज्ञानिक, व्यावहारिक और सम्मानजनक तरीके से यह शिक्षा दी जाए, तो हम न केवल असुरक्षित व्यवहार से उन्हें बचा सकते हैं, बल्कि समाज में लैंगिक संवेदनशीलता को भी बढ़ा सकते हैं।”
भारत के ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिक्षा की स्थिति और भी चिंताजनक है। वहां आज भी बच्चों को पोषण, स्वच्छता और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती। सरकार और एनजीओ को मिलकर ऐसे क्षेत्रों में विशेष स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रम चलाने चाहिए ताकि यह असमानता समाप्त की जा सके।
“जहाँ पाठशाला बने जीवन की पाठशाला,
वहां हर बच्चा बने अपने तन-मन का रखवाला।”
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