ऐसे शहर जहां प्रवासियों की जमात होती है, दो तीन भाषाएं बहुत आम हैं। साउथ अफ्रीका में एक शहर है जोहानसबर्ग, वहां हर दूसरा व्यक्ति 5 भाषाएं बोल सकता है। इस शहर में बहुत सारी इंडस्ट्रीज़ हैं। कहीं से आए लोग भी, जो अपने साथ अपनी अपनी भाषाएं ले कर आए हैं। कोलकाता में बिहारियों की भी बड़ी जमात है। वो बंगाली बोल लेते हैं, भोजपुरी या मैथिली भी, हिंदी भी, कुछ एक अंग्रेज़ी भी। ये पूरी दुनिया का आलम है। एक आंकड़ा भी है, जो बताता है कि दुनिया भर के 60 से 75 प्रतिशत लोग कम से कम दो भाषाएं बोल सकते हैं। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि द्विभाषी लोग औरों की तुलना में ज्यादा शार्प माइंडेड होते हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (International Mother Language Day) पर आइए लेते हैं इस भाषायी विशेषता का जायजा।
बहुभाषी होना यानी कई सारी भाषाएं जानना ज़ाहिर है कई तौर पर फ़ायदे देता है। नई जगह आपको अजीब नहीं लगती। तमिलनाडु में जा कर कई बार अंग्रेज़ी बोलना आपको बचा लेता है। तमिल नहीं आती तो न आए, हॉलीवुड मूवीज़ का डबिंग में कबाड़ा होते हुए आपने देख ही लिया होगा, अंग्रेज़ी आएगी तो बच जाएंगे। रिसर्च का काम करेंगे तो भी भाषाई-बाधा राह रोकेगी ही। कुल मिला कर फायदे तो हैं।
अब असल बात पर आते हैं। ये फायदा एक कदम आगे भी है। साइंस कहता है कि अगर आप बाईलिंगुअल हैं तो ये आपके दिमाग़ के लिए फायदेमंद है। बात थोड़े आश्चर्य की है लेकिन है सही।
1960 में एक साइकोलॉजिस्ट सुसान इरविन ट्रिप ने एक औरत का टेस्ट लिया जो जापानी और अंग्रेजी दोनों बोल लेती थी। इस टेस्ट का कन्क्लूज़न ये था कि दो भाषाएं बोलने वाले लोग एक ही चीज़ के बारे में दो तरह के माइंडसेट रखते हैं। यानी किसी सवाल का उत्तर जो वो किसी एक भाषा में देंगे, दूसरी भाषा में वो उत्तर बदल सकता है। कई सर्वे में लोगों ने इसे भी स्वीकारा कि जब वो अपनी ही दूसरी भाषा बोलते है तो वो ख़ुद को एक बदले हुए इंसान की तरह पाते हैं।
इसे और आसान करते हैं। आप अपनी मातृभाषा में एक सवाल का जवाब सोचिए। उदाहरण के तौर पर आपसे कोई आपके नेटिव भाषा में पूछे कि आपको खाने में सबसे ज्यादा क्या पसंद है? आपके दिमाग़ में जो जवाब आएंगे वो उसी जगह के आस-पास के होंगे जहां से आपने वो भाषा सीखी होगी? लेकिन जब यही सवाल आपसे अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा में पूछा जाए, तो बहुत चांसेस हैं कि आपका जवाब बदल जाए।
साइकोलॉजिस्ट सुसान इरविन ट्रिप ने अपने टेस्ट में यही किया था। उन्होंने एक ही सवाल अलग-अलग भाषाओं में उस महिला से पूछे और उत्तर अलग अलग मिले।
अलग-अलग शोध ये भी कहते हैं कि बहुभाषी लोग एक भाषा जानने वालों से बेहतर काम करते हैं। मोनोलिंगुअल्स से ज्यादा तेज और सटीक। इसके पीछे की दलील ये है कि जब दो भाषा जानने वाला व्यक्ति किसी एक भाषा में बात करेगा ठीक उसी वक्त उसका दिमाग़ उसकी दूसरी भाषा का इस्तेमाल न हो इस पर भी काम कर रहा होगा। ऐसे में वो व्यक्ति ज्यादा फोकस्ड और कन्सन्ट्रेटेड होगा ही। उम्र बढ़ने पर जब लोग चीजें भूलने लगते हैं- बाइलिंगुअल्स इसमें भी बेनिफिट पा लेते हैं।
अब एक और रिसर्च की सुनिए। एक थीं एलेन बेलस्टॉक, साइकोलॉजिस्ट थीं। टोरंटो के यार्क यूनिवर्सिटी में उन्होंने एक रिसर्च किया। रिसर्च इस बात की थी कि बढ़ती उम्र का असर बाइलिंगुअल्स और मोनोलिंगुअल्स पर किस तरह से होता है। दोनों पर असर-अलग अलग थे। उन्होंने एक ही बीमारी से पीड़ित बाइलिंगुअल्स और मोनोलिंगुअल्स लिए थे, लेकिन उनका कहना था कि मोनोलिंगुअल्स के चार साल बाद बाइलिंगुअल्स में अल्जाइमर के लक्षण दिखे।
यहां भी दो भाषा बोलने वालों ने बाजी मार ली। बेलस्टॉक ने लिखा था कि चूंकि बाइलिंगुअल्स का दिमाग़ मोनोलिंगुअल्स की तुलना में ज़्यादा अभ्यस्त होता है, इसलिए अगर दिमाग़ के किसी हिस्से में समस्या होती, तो वो उससे आसानी से डील कर लेते हैं। एक और बड़ी बात, सिर में चोट लगने पर भी बाइलिंगुअल होना फायदा दे सकता है। भारत में स्ट्रोक से बचे 600 लोगों पर एक शोध हुआ था. पाया गया कि स्ट्रोक से उबर पाने की क्षमता बाइलिंगुअल्स में मोनोलिंगुअल्स के मुक़ाबले दोगुनी थी।
बहुत आंकड़े, रिसर्च दे दिए। बात सही भी है कि द्विभाषी होना या बहुभाषी होना दिमाग़ी तौर पर फिट रखता है। ये हो गई आपके काम की बात। वैसे एक बात और है, वो भी रिसर्च ही है, लेकिन भाषाओं के लिए। साल 2022 तक 29 ऐसी भाषाएं हैं, जो अब बोली ही नहीं जातीं। यानी लोग कम्फर्ट जोन के चक्कर में उन भाषाओं को पीछे छोड़ चुके। नई भाषाओं को इसके अलावा कि आपको उससे फायदा क्या है , इसलिए भी सीखना ज़रूरी है कि वो भाषाएं भी जिंदा रहें। हमारे इस्तेमाल से ही तो सारी भाषाएं हैं। अगर इस्तेमाल में नहीं तो भाषा भाषा कहां?
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