जनरेशनल ट्रॉमा जिसे पीढ़ियों से चला आ रहा मानसिक संघर्ष भी कहा जा सकता है। यह एक ऐसा मानसिक और भावनात्मक अनुभव है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है। इसका प्रभाव केवल उस व्यक्ति पर ही नहीं पड़ता, जिसने व्यक्तिगत रूप से ट्रॉमा का अनुभव किया हो, बल्कि उसके बच्चों और उनके बच्चों पर भी इसका असर पड़ता है। ये ट्रॉमा किसी बड़े सामाजिक, ऐतिहासिक, या पारिवारिक घटना से उत्पन्न हो सकता है जैसे घरेलू क्लेश, उत्पीड़न या गरीबी आदि।
यह आघात सीधे तौर पर वर्तमान पीढ़ी को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि पूर्वजों के अनुभव और उनकी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से एक मानसिक और भावनात्मक बोझ बनकर आगे बढ़ता है। साथ ही ये कई पीढ़ियों तक जा सकता है और इसका प्रभाव व्यक्ति के मेंटल और इमोशनल हेल्थ पर गहरा हो सकता है। ऐसे में ये समझना जरूरी है कि यह कैसे बढ़ता है, इससे क्या समस्याएं हो सकती हैं और इसके क्या समाधान है?
नारायणा हॉस्पिटल, गुरुग्राम में कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट एंड साइकोथेरेपी, डॉ. राहुल राय कक्कड़ बताते हैं कि “आमतौर पर उन परिस्थितियों में जनरेशनल ट्रॉमा विकसित होता है, जहां एक परिवार ने लंबे समय तक अत्यधिक तनाव, हिंसा, बदसलूकी, या सामाजिक अन्याय सहा हो। ज्यादातर मामलों में इस प्रकार के ट्रॉमा का विकास यहां बताये जा रहे कारणों से हो सकता है-
संघर्ष, बड़े समूह को दबाना, गरीबी, और शोषण जैसी बड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ परिवारों में गहरे ट्रॉमा का कारण बन सकती हैं। जब परिवार के सदस्य ऐसे अनुभवों से गुजरते हैं, तो वे अपनी पीढ़ी को इस ट्रॉमा का भावनात्मक बोझ अनजाने में दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, लड़ाई के बाद के तनाव में फंसा एक व्यक्ति अपनी चिंताओं, डर और भावनात्मक असुरक्षा को अपने बच्चों में भर सकता है।
जिन परिवारों में ट्रॉमा झेलने वाले लोग होते हैं, वहां बच्चों को अनजाने में ही ट्रॉमा से संबंधित भावनाओं और व्यवहारों का सामना करना पड़ता है। ट्रॉमा से परेशान माता-पिता अपने बच्चों के साथ सामान्य तरीके से संबंध नहीं बना पाते और कई बार कठोर हो जाते हैं। इससे बच्चों में भय, असुरक्षा, और आत्म-सम्मान की कमी जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
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ट्रॉमा का असर केवल मानसिक और भावनात्मक रूप से नहीं, बल्कि जेनेटिक रूप से भी होता है। अत्यधिक तनाव या ट्रॉमा हमारे जीन्स को प्रभावित कर सकता है और यह आने वाली पीढ़ियों में भी देखा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि एक पीढ़ी में ट्रॉमा का अनुभव करने वाला व्यक्ति अपनी अगली पीढ़ियों में भी इस प्रभाव को देख सकता है, भले ही वे सीधे उस ट्रॉमा का अनुभव न करें।
समाज और परिवार में ट्रॉमा को छिपाने या नकारने की प्रवृत्ति भी ट्रॉमा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करती है। समाज में ट्रॉमा से जुड़ी शर्म या दोष की भावना के कारण लोग अपने दर्द को साझा नहीं करते, जिससे यह अनुभव अगली पीढ़ी में भी बना रहता है।
जनरेशनल ट्रॉमा से संबंधित कई मानसिक और भावनात्मक समस्याएं हो सकती हैं, जिनका प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर पड़ता है। यह केवल मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं होता, बल्कि यह एक व्यक्ति के पूरे जीवन और सभी संबंधों को प्रभावित कर सकता है।
डिप्रेशन, एंग्जाईटी और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) जैसी मानसिक समस्याएं जनरेशनल ट्रॉमा से संबंधित हो सकती हैं। जिन व्यक्तियों के पूर्वजों ने गहरे ट्रॉमा का सामना किया है, वे अनजाने में उन अनुभवों को अपने जीवन में दोहरा सकते हैं। इससे निराशा, चिंता, और अस्थिरता का अनुभव हो सकता है।
जनरेशनल ट्रॉमा से ग्रस्त व्यक्ति अक्सर दुनिया को एक खतरनाक जगह के रूप में देखते हैं। उनके लिए दूसरों पर भरोसा करना कठिन होता है और वे लगातार चिंता और डर के साथ जीते हैं। ऐसे लोग अक्सर अपने रिश्तों में कठिनाई का सामना करते हैं। उनके पास दूसरों के साथ स्वस्थ संबंध बनाने की क्षमता सीमित हो सकती है। वे अनजाने में क्रोध, असुरक्षा, और भावनात्मक अस्थिरता से घिरे रह सकते हैं।
ट्रॉमा का प्रभाव व्यक्ति के आत्मसम्मान पर गहरा असर डाल सकता है। जो लोग जनरेशनल ट्रॉमा से गुजरते हैं, वे अक्सर खुद को अयोग्य, कमजोर या असफल मानते हैं। यह नकारात्मक छवि उनके व्यक्तिगत और प्रोफेशनल जीवन में रुकावट बन सकती है।
ट्रॉमा का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव भी होता है। ट्रॉमा का सामना करने वाले परिवारों में शिक्षा, रोजगार और इकोनॉमिक स्टेबिलिटी को लेकर संघर्ष हो सकता है। एक पीढ़ी के संघर्ष और असफलताओं का असर अगली पीढ़ी पर भी देखा जा सकता है, जो उन्हें आगे बढ़ने से रोक सकता है।
जनरेशनल ट्रॉमा के कारण परिवार के सदस्यों के बीच के संबंध तनावपूर्ण हो सकते हैं। माता-पिता और बच्चों के बीच बातचीत और विश्वास की कमी से भावनात्मक दूरियां पैदा हो सकती हैं, जिससे परिवार में गहरे मतभेद हो सकते हैं।
डाॅ. राहुल आगे जोड़ते हैं कि “जनरेशनल ट्रॉमा से निपटना कठिन हो सकता है, लेकिन यह असंभव भी नहीं है। इसके लिए उचित समझ, सेंसिटिविटी और सहायता की आवश्यकता होती है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं जिनसे जनरेशनल ट्रॉमा को संभाला जा सकता है-
पहला कदम ट्रॉमा को पहचानना और इसे स्वीकार करना है। परिवार के इतिहास और अनुभवों की समझ को बढ़ाकर व्यक्ति इस ट्रॉमा को समझ सकता है। इस समझ से एक महत्वपूर्ण उपचार प्रक्रिया की शुरुआत होती है जो उन अनुभवों को दोहराने से रोकने में मदद करती है।
मनोचिकित्सा का उपयोग जनरेशनल ट्रॉमा से निपटने के लिए अत्यंत प्रभावी हो सकता है। इसमें व्यक्ति को अपनी भावनाओं और अनुभवों को व्यक्त करने का अवसर मिलता है। विभिन्न प्रकार की थेरेपी, जैसे कि संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी (CBT) और फैमिली थेरेपी, ट्रॉमा से उबरने में मदद कर सकती हैं। ये थेरेपी व्यक्ति को अपने परिवार की ट्रॉमा से प्रभावित आदतों और व्यवहारों को समझने और उन्हें बदलने में मदद करती हैं।
परिवार के भीतर खुला और स्वस्थ संवाद ट्रॉमा को कम करने में सहायक हो सकता है। भावनाओं को दबाने के बजाय उनके बारे में बातचीत करना और अपने अनुभवों को साझा करना पारिवारिक संबंधों को मजबूत करता है और यह भी स्पष्ट करता है कि कौन से व्यवहार और भावनाएँ ट्रॉमा से प्रभावित हैं।
मानसिक और शारीरिक संतुलन को बनाए रखने के लिए ध्यान, योग, और अन्य तनाव-नियंत्रण तकनीकों का अभ्यास मददगार हो सकता है। ये व्यक्ति को अपने ट्रॉमा से होने वाले मानसिक तनाव और इमोशनल इन्सेक्योरिटी को कंट्रोल करने में मदद करते हैं।
जनरेशनल ट्रॉमा से पीड़ित व्यक्तियों के लिए सपोर्ट ग्रुप में शामिल होना फायदेमंद हो सकता है। इन समूहों में समान अनुभव वाले लोग होते हैं, जिससे व्यक्ति को अपनी भावनाओं को साझा करने का, समझने का और सहायता प्राप्त करने का मौका मिलता है।
जनरेशनल ट्रॉमा एक गंभीर और जटिल समस्या है। जिसका प्रभाव व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक जीवन पर पड़ता है। इसका प्रभाव पीढ़ियों तक बना रह सकता है, लेकिन इसे पहचाना और समझा जा सकता है। सही उपचार, संवाद, और मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से इसे कम किया जा सकता है। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने इतिहास को समझे, उसे स्वीकार करे, और उसे बदलने के लिए जरूरी कदम उठाए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वस्थ और बेहतर जीवन जी सकें।
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