बचपन वो उम्र है, जब बच्चे गिरते है और उन्हें चोट लगती है, मगर उन्हें डांटने की जगह संभालने की जिम्मेदारी पेरेंट्स की होती है। ठीक उसी तरह जब बच्चे बड़े होने लगते हैं, तो कभी क्विज़, कभी स्पोर्टस, तो कभी अन्य प्रोजेक्ट में जीत और हार का सामना करने लगते है। इसमें कोई शक नहीं कि उम्र बढ़ने के साथ कॉम्पीटिशन का दायरा भी बढ़ने लगता है। ऐसे में बच्चे कई बार जिंदगी के कई पायदान पर खुद को अन्य बच्चों की तुलना में हारा हुआ और कमज़ोर महसूस करने लगते है।
आमतौर पर देखा जाए, तो अभिभावक बच्चों को गलती समझाने के लिए डांट और फटकार लगाने लगते है। मगर समझदारी डांटने में नहीं बल्कि उनकी जगह खुद खड़े होकर उस समस्या से बच्चों को बाहर निकालने में हैं। अगर आप भी बच्चों को उनकी हार में सपोर्ट करना चाहती है, तो इन बातों का रखें ख्याल (How to handle failure of child)।
एसोसिएशन फॉर साइकोलॉजिकल साइंस की रिपोर्ट के अनुसार हर बच्चे की मानसिक क्षमताएँ अलग होती है। अक्सर बच्चे माता पिता की प्रतिक्रिया को देखकर ही सीखते हैं कि जीवन में मिली विफलता (How to handle failure of child) को सकारात्मक तौर पर लेना है या नकारात्मक। रिसर्च के अनुसार माता पिता जो आमतौर पर अपने बच्चों के खराब क्विज़ ग्रेड के साथ चिंता दिखाते हैं। उसका असर बच्चों के व्यवहार पर दिखने लगता है।
मनोचिकित्सक डॉ आरती आनंद बताती हैं कि माता पिता अक्सर बच्चों को उनके हर कार्य में मदद करने लगते है, जिससे उन्हें जीवन में हर समय फर्स्ट आने की हेबिट बिल्ड होने लगती है। अक्सर माता पिता बच्चों को गलती करने से रोक देते हैं और हर काम में उनकी मदद करने लगते है। हर दम मार्गदर्शन करना बच्चे के व्यवहार पर नकारात्मक प्रभाव डालने लगता है।
इससे बच्चों का हार से सामना (How to handle failure of child) नहीं हो पाता है और जब होता है, तो वो बिखर जाते हैं। ऐसे में पेरेंट्स को उन्हें गलतियाँ करने की छूट देनी चाहिए। इससे बच्चे असफल होने के बाद असली सफलता का मज़ा चख पाते हैं, जो उन्हें संतुष्टि और आत्मविश्वास दोनों ही देती है। असफलता एक ऐसा महत्वपूर्ण अनुभव है जिससे बच्चों को सीखने में मदद मिलती है।
बच्चे की भावनाओं को समझकर उनके करीब आया जा सकता है। इससे बच्चे अपनी भावनाओं को आसानी से व्यक्त कर पाते है। एक्सपर्ट के अनुसार उन्हें जवाब देने से पहले 100 से 1 तक उल्टी गिनती करने जैसी रणनीतियाँ सिखाएँ ताकि हार के बाद पनपने वाले गुस्से और तनाव से दूर रह सकें। बच्चे को हार के महत्व की जानकारी दें और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करें।
हार के बाद बच्चों का निराश होना स्वाभावित है। वो गुस्से में कुछ भी कहने लगते हैं और खुद को कमज़ोर मानने लगते हैं। वो एक ही पल में कभी क्रोधित, कभी दुखी तो कभी निराश महसूस करते हैं। पेरेंट्स की ड्यूटी है कि उन्हें समझाया जाए कि लो फील करना सामान्य है। मगर साथ ही ये बात भी समझाएं कि हर बार जीत हासिल करना संभव नहीं है। इससे जीवन में कुछ नया सीखने की चाहत कम होने लगती है। साथ ही पहले से ज्यादा प्रयास करने की क्षमता मन में एकत्रित नहीं हो पाती है।
पेरेंट्स को न केवल विकास की मानसिकता में विश्वास करने की आवश्यकता है, बल्कि उन्हें अपने बच्चों के प्रति इस विश्वास के अनुसार प्रतिक्रिया भी देनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें, तो भले ही आपको लगता हो कि बच्चे बेहतर हो सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं। मगर उसका प्रमाण आपकी वाणी से मिलना ज़रूरी है यानि बच्चों को मोटिवेट करने के लिए और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। विचारों को पॉजिटिव रखें और उनके साथ मुस्कुराएँ व उन्हें गले भी लगाएं।
अधिकतर माता पिता अपना ध्यान बच्चे के अंतिम लक्ष्य पर लगाने लगते हैं, जब कि उनके प्रयासों पर ज़ोर देने में ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी आवश्यक है। बच्चों को हिम्मत दें और उनकी ताकत बनें। डराने और धमकाने की जगह उनके दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाने का प्रयास करें। बच्चों को उनके जुनून और कोशिश करने से मिलने वाले मज़े पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। आखिरकार, जब कुछ नया करने की बात आती हैए तो यह मंज़िल से ज़्यादा यात्रा के बारे में होता है।
व्यवहार में सकारात्मकता को बढ़ाने के लिए फेलियर के दौरान बच्चे के इमोशंस को समझने का प्रयास करें और जानें कि कौन सी बात उनकी परेशानी बढा़ रही है। हार के दौरान बच्चे फेलियर से ज्यादा इस बात से परेशान हो जाते हैं कि माता पिता की कैसी प्रतिक्रिया होगी या स्कूल में उनसे कैसा व्यवहार किया जाएगा। परिणाम बच्चे के व्यवहार को आक्रामक बना देता है। ऐसे में बच्चे के इमोशंस पर नज़र बनाकर रखें।
अगर बच्चा असफल हो रहा है, तो उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं पर ध्यान दें। उम्र से पहले ज्यादा एक्सपेक्टेशन बच्चे के विकास में बाधा बनने लगता है। ऐसे में खुद की आकांक्षाओं को बच्चों पर न थोपें और उनके हर काम में साथ दें। उनकी चाहतों को समझें और उसी क्षेत्र में उन्हें आगे बढ़ने दें।
रिजल्ट के बाद अगर बच्चों के अंक लगातार कम आ रहे हैं, तो समस्या के कारण को खोज करने की कोशिश करे। इस बात को जानने का प्रयास करें कि बच्चा किस कमी का शिकार है और पढ़ने में, समझने में या लिखने में कहां कमी का सामना कर रहा है।
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