बच्चे के जन्म के साथ ही उसका वैक्सीन कार्ड तैयार कर दिया जाता है। नवजात की देखरेख से लेकर उसे समय से दवा और वैक्सीन दिलवाना माता पिता की प्राथमिकता होती है। इन्हीं वैक्सीन में से एक है पोलियो की दवा (polio vaccine), जिसे ड्राप या वैक्सीन के रूप में बच्चे को दिया जाता है। इसी बीच मेघालय के वेस्ट गारो हिल्स जिले में पोलियो का मामला (polio in India) प्रकाश में आया है। दो साल के बच्चे में पाए गए पोलियों के लक्षणों से लोग चिंताग्रस्त हैं।
भारत में पल्स पोलियो कार्यक्रम की शुरूआत 1995 में हुई थी। उसका मकसद पोलियो को जड़ से खत्म करने के लिए पांच साल और उससे कम उम्र के सभी बच्चों को ओरल पोलियो वैक्सीन की खुराक पिलाना था। कार्यक्रम के तहत बच्चों को घर घर जाकर दवा पिलाई जाती है।
मेघालय के वेस्ट गारो हिल्स जिले से कुछ दूरी पर स्थित एक गांव में दो साल के बच्चे में पोलियो का मामला पाया गया। असम के गोअलपारा अस्पताल में जांच के बाद बच्चे में एक्यूट फ्लेसिड पैरालिसिस की पुष्टि की गई है। इसके बाद स्वास्थ्य अधिकारियों ने जांच के आदेश जारी कर दिए है। डॉक्टरों की टीम ने सैंपल एकत्रित करके जांच के लिए भेज दिए हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजे़शन से भारत को 27 मार्च 2014 को पोलियो.मुक्त प्रमाणन प्राप्त हुआ। इससे पहले 13 जनवरी 2011 को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में पोलियो का आखिरी मामला सामने आया था। पोलियो की रोकथाम के लिए भारत में पल्स पोलियो प्रतिरक्षण कार्यक्रम 1995 को शुरू किया गया था। उस वक्त विश्व के पोलियो मामलों में से लगभग 60 फीसदी भारत में थे।
इस बारे में पीडियाट्रीशियन डॉ अभिषेक नायर बताते हैं कि पोलियो वायरस के ज़रिए फैलता है। ये वायरल इस समस्या से ग्रस्त बच्चे के स्टूल में पाया जाता है। स्टूल या फिर उससे कंटेमिनेटिड पानी के संपर्क में आने से ये वायरस किसी बच्चे को अपनी चपेट में ले लेता है।
शरीर में प्रेवश करने के बाद ये वायरस उस नर्व को डैमेज कर देता है जिससे बॉडी में सेंसेशन बढ़ती है। सात साल से कम उम्र के बच्चों में इस समस्या का जोखिम बना रहता है। मगर उसके बाद बच्चों का इम्यून सिस्टम मज़बूत हो जाता है, जिसके चलते बच्चों को पोलियों का खतरा नहीं रहता है।
बच्चों को पोलियो के जोखिम से बचाने के लिए दो प्रकार की वैक्सीन प्रयोग में लाई जा रही हैं। पहला है ओरल वैक्सीन, जिसमें बच्चों को पोलियों दवा की बूंद पिलाई जाती है। दूसरा है पोलियो वैक्सीन, जिससे बच्चों में पोलियो वायरस का जोखिम 99 फीसदी तक कम हो जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 200 में से कोई 1 व्यक्ति परमानेंट पेरालिसिस का शिकार होता है। इससे स्पाइनल कॉर्ड और ब्रेन स्टेम में पेरालीसिस का खतरा बना रहता है। इसके चलते मांसपेशियों में दर्द और गंभीर ऐंठन बनी रहती है। इसके चलते ज्वाइंट वीकनेस, सांस लेने में तकलीफ, डिप्रेशन और नींद न आने की समस्या बढ़ जाती है।
पोलियो के लक्षण वायरस के संपर्क में आने के 3 से लेकर 21 दिनों बाद देखने को मिलते है। इस स्टेज को प्री पेरेलिटिक स्टेज कहा जाता है। ऐसे में बच्चे को थकान, बुखार, उल्टी और सिरदर्द की शिकायत होने लगती है। इसे एक्यूट स्टेज भी कहा जाता है, जिसमें गर्दन में स्टिफनेस महसूस होने लगती है और ऑटोनॉमिक डिस्फंक्शन का सामना करना पड़ता है।
बच्चों को कई कारणों से बुखार का सामना करना पड़ता है। पोलियो से ग्रस्त बच्चों को बार बार बुखार होने लगता है। तेज़ चढ़ने वाला बुखार पोलियो को दर्शाता है।
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कस्टमाइज़ करेंदिनभर खेलकूद करने के बावजूद भी बच्चे एनर्जी से भरपूर रहते हैं। मगर इस समस्या से ग्रस्त होने के बाद बच्चों को थकान और कमज़ोरी महसूस होती है। इससे बच्चे खेलना कूदना बंद कर देते हैं।
वायरस से बढ़ने वाली पोलियो की समस्या का प्रभाव नर्वस पर दिखने लगता है। इससे स्पाइन और ब्रेन स्टेम पर असर दिखने लगता है। इसके चलते व्यक्ति को हिलने डुलने में तकलीफ होती है और सिरदर्द का सामना करना पड़ता है।
वे बच्चे जो पोलियो से ग्रस्त होते हैं, उन्हें मसल्स वीकनेस का सामना करना पड़ता है। इससे टांगो में पेरालिसिस का सामना करना पड़ता है। टांगो में कमज़ोरी बढ़ जाती है और मसल्स श्रिंक हो जाते है। इसके अलावा गर्दन में दर्द व स्टिफनेस बढ़न लगती है।
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